जैविक वर्गीकरण एवं जंतु जगत

जैविक वर्गीकरण एवं जंतु जगत

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जैविक वर्गीकरण एवं जंतु जगत

 

विश्लेषणात्मक अवधारणा

सरल आकारिक लक्षणों पर आधारित पादपों और प्राणियों के वर्गीकरण को सर्वप्रथम अरस्तू ने प्रस्तावित किया था। बाद में लीनियस द्वारा सभी जीवधारियों को ‘प्लांटी’ तथा ‘ऐनिमेलिया’ जगत में वर्गीकृत किया गया। इसके बाद एक वृहत् पांच: जगत वर्गीकरण की पद्धति का प्रस्ताव किया। ये प्राणी जगत के सदस्य बहुकोशिकीयय यूकैरियोटिक जीव हैं। इनमें कोशिका भित्ति का अभाव होता है। यह विषमपोषी होते हैं तथा ठोस रूप में जटिल कार्बनिक पदाथोर्ं को भोजन के रूप में लेते हैं। शरीर के अन्दर लिया गया भोजन का आन्तरिक गुहा में सरल पदाथोर्ं में पाचन होता है। पचित भोज्य पदार्थ शरीर द्वारा अवशोषित होते हैं। इस तरह के पोषण को समभोजी पोषण ( Holozoic nutrition) कहते है। भोजन ग्लाइकोजन तथा वसा ( Fats) के रूप में संचित होता है। इसमें लैंगिक प्रजनन होता है।

 

 

वर्गीकरण प्रणाली - अरस्तु ने सर्वप्रथम जीवों का वैज्ञानिक आधार पर वर्गीकरण किया। बाह्य रचना के आधार पर, उन्होंने पादपों को तीन समूहों में विभक्त किया-वृक्ष, जड़ी-बूटी वाले पौधे तथा झाड़ियों वाले पौधे। अरस्तू ने जन्तुओं को भी दो समूहों वर्गीकृत किया था -

(i) इनेमा (जन्तु जिनमें लाल रक्त हो) तथा

(ii) एनेमा (जन्तु जिनमें लाल रक्त न हो)।

 

वर्गीकरण की द्विजगत प्रणाली - कैरोलस लीनियस ने सभी जीवों को दो जगत में वर्गीकृत किया-जन्तु जगत एवं पादप जगत।

तीन डोमेन पद्धति - कार्ल वोज नामक वैज्ञानिक ने तीन डोमेन पद्धति को विकसित किया। इस प्रणाली के अन्तर्गत जीवों को तीन डोमेन तथा जीवाणु (bacteriaंं), आद्य बैक्टीरिया (Acheabacteria) तथा यूकैरियोटा (EUkaryotaं) एवं जगत है - यूबैक्टीरिया ( Eubacteria),प्रोटिस्टा ( Protista ं), कवक ( Fungi), पादप (Plantae) तथा जन्तु ( Animalia)!

वर्गीकरण का पांच जगत पद्धति - वर्ष 1969 में आर. एच. व्हीटेकर ने पांच जगत वर्गीकरण ने प्रतिपादित किया - मोनेरा, प्रोटिस्टा, कवक, पादप तथा जन्तु। पांच जगत वर्गीकरण के प्रमुख आधार कोशिका संरचना, दैहिक संगठन, जीवन पद्धति ( Life Cycle), पोषण एवं प्रजनन की विधि तथा जातिवृत्तीय संबंध ( Phyogeny) हैं।

जगत प्रोटिस्टा - इसके सभी जीव जो एककोशिकीय, यूकैरियोटिक होते हैं। यूकैरियोटिक होने के कारण, प्रोटिस्टा में एक सत्य केन्द्रक तथा कोशिका कला, कोशिकांग पाये जाते हैं। प्रोटिस्टा जगत मोनेरा जगत तथा अन्य जगत (कवक, पादप, प्राणी) के बीच की कड़ी है।

जगत प्रोटिस्टा के अन्तर्गत

(i) क्रायसोफाइट्स - अधिकतर क्राइसोफाइटस प्रकाश-संश्लेषी हैं। इसके अन्तर्गत डाइएटम तथा डेस्माइड (सुनहरे शैवाल) आते हैं। यह सूक्ष्मजीवी तथा जलीय जीव हैं जो दोनों मीठे पानी तथा समुद्री आवास में उपस्थित रहते हैं। समुद्रों में सबसे अधिक उत्पादक डाइएटम्स हैं।

(ii) डाइनोफ्लेजिलेट्स - यह अधिकतर समुद्री तथा प्रकाश-संश्लेषी है। कोशिका में उपस्थित वर्णकों के आधार पर वह नीले, हरे, भूरे तथा लाल होते हैं। लाल डाइनोफ्लैजिलेटस् की अधिकता होने के कारण समुद्र का रंग लाल हो जाता हैं।

(iii) यूग्लीनॉइड्स - अधिकतर यह जीव मीठे स्थिर जल में पाये जाते हैं। इनमें हरितलवक (Chlorophyll) होने के कारण प्रकाश-संश्लेषण में सहायक होते हैं। प्रकाश की अनुपस्थिति में ये शिकारी की भांति छोटे सूक्ष्मजीवी का भक्षण करते हैं।

(iv) स्लाइम मोल्ड - यह परजीवी होते हैं जो ठण्डे, नम तथा छांव वाली जगहों पर पाये जाते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में, वह एक गुच्छा बनाते हैं जिसे प्लाज्मोडियम (Plasmodium) कहते हैं जिनका आकार निश्चित नहीं होता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में, प्लाज्मोडियम फलीदार संरचना में परिवर्तित होता है जिसके शीर्ष पर बीजाणु होते हैं। बीजाणु अत्यन्त प्रतिरोधक होते हैं तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी कर्इ वषोर्ं तक जीवित रहते हैं।

(v) प्रोटोजोन्स (Protozoans) - यह विषमपोषी एवं परजीवी या प्रोटोजोन के मुख्य चार समूह हैं

(a) अमीबीय प्रोटोजोन (Amoebic protozoan) -उदाहरण-अमीबा तथा एण्टअमीबा

(b) कशाभी प्रोटोजोन (Flagellate protozoan)-उदाहरण-ट्राइपेनोसोमा

(c) पक्ष्माभी प्रोटोजोन (Cilliate protozoan) - उदाहरण-पैरामीशियम 

(d) स्पोरोजोआ प्रोटोजोन (Sporoxoan) - उदाहरण-प्लाज्मोडियम

पादप जगत ( Kingdom Plantae )

  • इस जगत में सभी पौधे सम्मिलित रहते हैं। यह प्रकाश-संश्लेषी, स्वपोषी, कुछ कीटभक्षी जैसे वीनस फ्लार्इ ट्रेप तथा ब्लैडरवर्ट ( Bladewort) है। कस्कुटा (Cuscuttaं) एक परजीवी पौधा है। इनमें यूकेरियोटिक कोशिका हरित लवक के साथ पार्इ जाती है। इनकी कोशिका भित्ति सेलुलोस की निर्मित होती है।
  • पौधों के जीवन में दो चक्र होते हैं - अगुणित युग्मकोद्भिद् चक्र (Haploid gametophyte phase) तथा द्विगुणित बीजाणुजनक चक्र ( Diploid Sporophytic phase) यह दोनों चक्र एक-दूसरे को एकान्तरित करते हैं जो पीढ़ी एकान्तरण (Alternation of generation) कहलाता हैं। पादप जगत में शैवाल (Algae), ब्रायोफाइट्स (Bryophytes), टेरिडोफाइट (Pteridophyte), अनावृतबीजी पौधे (Gymnosperms) तथा आवृतबीजी पादप ( Angiosperms) सम्मिलित हैं।

(vi) विषाणु (Virus) - यह अकोशिकीय जीव होते हैं जो असक्रिय क्रिस्टलीय रूप में किसी जीवित कोशिका के बाहर रहते हैं। यह बाह्य परजीवी होते हैं। जैसे ही ये किसी कोशिका को संक्रमित करते हैं उस कोशिका की आनुवंशिक पदार्थ का उपयोग अपने स्व-प्रतिकृति निर्माण के लिये इस्तेमाल करते हैं। बेजेरिनेक ((W-M-Stanley] 1898) ने रिसर्च के आधार पर बताया कि संक्रमित (रोगग्रस्त) पौधे के रस को स्वस्थ पौधों की पत्तियों पर रगड़ने से स्वस्थ पौधे भी संक्रमित हो जाते हैं। इसी आधार पर इन्हें तरल विष या संक्रामक जीवित तरल कहा गया है। वाइरस अर्थात विष या जहरीला तरल लुर्इस पॉश्चर ने नाम दिया ‘वाइरस।

 

वैज्ञानिक इवानोवस्की (1892) ने बताया कि कुछ सूक्ष्मजीवी

तम्बाकू के पौधों मे तम्बाकू मोजेक रोग फैलाते हैं। 

  • डब्ल्यू. एम. स्टैनले (W-M-Stanley, 1935) ने सबसे पहले वाइरस को क्रिस्टलीय अवस्था में प्राप्त किया।
  • विषाणु प्रोटीन और न्यूक्लिक एसिड दो प्रकार के पदाथोर्ं के बने होते हैं। प्रोटीन का खोल (Shells), जो न्यूक्लिक एसिड के चारों ओर रहता है, कैप्सिड (Capsid) कहलाता हैं। न्यूक्लिक एसिड या तो DNA या RNA के रूप में होता है। विभिन्न रोग जैसे मम्प्स ( Mumps), छोटी माता ( Small pox), हरपीज, इन्फ्लूएजा तथा एड्स विषाणु द्वारा होते हैं।

वायरॉइड ( Viriods) - सन 1971 में टी.ओ. डाइनर ने एक नया संक्रामक कारक खोजा जो वाइरस से भी छोटा तथा जिसके कारण ‘पोटेटो स्पिंडल टîूबर’ नामक रोग होता था। विरोइडो में आरएनए तथा प्रोटीन आवरण (Cover), जो वाइरस में पाए जाते हैं उनका अभाव होता है। इसलिए यह विरोइड के नाम से जाने जाते हैं। वायरॉइड के आरएनए का आण्विक भार कम था।


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