विश्लेषणात्मक अवधारणा
भारतीय संविधान केन्द्र के साथ-साथ राज्यों में भी संसदीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। संविधान ने राज्यों को एक सदनात्मक या द्विसदनात्मक विधायिका स्थापित करने का विकल्प दिया। अब केवल 6 राज्यों में द्विसदनात्मक विधायिका है। विविधताओं से परिपूर्ण बड़े प्रदेश प्रायः द्विसदनात्मक विधायिका चाहते है ताकि वे अपने समाज के सभी वर्गों और प्रदेश के सभी क्षेत्रों या भागों को समुचित प्रतिनिधित्व दे सके। इसीलिए समय पर विभिन्न राज्यों के द्वारा अपने राज्य में उच्च सदन अर्थात् विधानपरिषद के सृजन की मांग की जाती रही है। राज्य की द्विसदनात्मक विधायिका को विधानमण्डल कहा जाता है।
राज्य मंत्रिपरिषद्ः भारतीय संविधान में केन्द्र के साथ-साथ राज्यों में भी संसदीय शासन व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। संविधान के अनुच्छेद-163 के अनुसार, राज्यपाल को सहायता तथा परामर्श देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा। यद्यपि यह मत्रिपरिषद् राज्यपाल को सहायता और सलाह देने के लिए गठित होती है, किन्तु व्यावहारिक रूप में मंत्रिपरिषद ही राज्य का शासन चलाती है। सामान्यतः राज्यपाल के कुछ विवेकाधीन अधिकारों को छोड़कर शेष सभी अधिकारों के प्रयोग करने का अधिकार मंत्रिपरिषद् को ही है। वस्तुतः केन्द्र की तरह राज्यों का शासन भी मंत्रिपरिषद के द्वारा ही चलाया जाता है।
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मुख्यमंत्रीः राज्य का मुख्यमंत्री सरकार का प्रमुख होता है तथा वह वास्तविक कार्यपालक अधिकारी भी होता है। राज्य में मुख्यमंत्री का पद, केंद्र में प्रधानमंत्री के पद के समान होता है। संविधान के अनुच्छेद 164 के अनुसार, मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि राज्यपाल किसी को भी मुख्यमंत्री नियुक्त करने के लिए स्वतंत्र है। साधारणतया, राज्य विधानसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को ही राज्यपाल, उस राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त करता है। राज्यपाल ही मुख्यमंत्री को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है। किसी मामले में, यदि किसी भी दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त नहीं हो तो ऐसी परिस्थिति में राज्यपाल सबसे बड़े दल या गठबंधन के नेता को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है। इस स्थिति में राज्यपाल उसे एक निश्चित अवधि में सदन में अपना बहुमत सिद्ध (विश्वास मत प्राप्त) करने को कहता है।
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मुख्यमंत्री की शक्तियां एवं कार्यः मंत्रीपरिषद के संबंध में मुख्यमंत्री की शक्तियां एवं कार्य निम्नलिखित हैं:
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राज्यपाल, उन्हीं व्यक्तियों को एक मंत्री के रूप में नियुक्ति करता हैं, जिनकी सिफारिश मुख्यमंत्री करता है।
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वह मंत्रियों के बीच विभागों का आवंटन और फेरबदल कर सकता है।
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वह एक मंत्री से इस्तीफा देने के लिए कह सकता है तथा विचारों का मतभेद होने पर, राज्यपाल को उक्त मंत्री को हटाने की सलाह दे सकता है।
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वह मंत्रिपरिषद की बैठकों की अध्यक्षता करता है और उसके निर्णयों को प्रभावित करता है।
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वह सभी मंत्रियों की गतिविधियों का मार्गदर्शन, निर्देशन, नियंत्रण और समन्वय करता है।
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मुख्यमंत्री मंत्रिपरिषद का प्रमुख होता है, उसका इस्तीफा या मृत्यु होने पर स्वतः ही मंत्रिपरिषद को भंग हो जाती है।
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मंत्रियों का चयनः मुख्यमंत्री अन्य मंत्रियों का चयन करता है। वह मंत्रियों के नामों और उनके विभागों की सूची राज्यपाल को देता है। मंत्रिपरिषद् में कितने सदस्य हों, इसका निर्णय भी मुख्यमंत्री ही करता है।
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91वें संवैधानिक संशोधन, 2003 द्वारा संविधान के अनुच्छेद 164 में प्रावधान किया गया है कि, मंत्रिपरिषद में सदस्यों की संख्या निचले सदन (लोकसभा एवं राज्य विधानसभा) की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए तथापि किसी राज्य में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या 12 से कम नहीं होगी।
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राज्यपाल के संबंध में: मुख्यमंत्री, राज्यपाल एवं मंत्रिपरिषद के बीच संचार का प्रमुख माध्यम हैं, मुख्यमंत्री का कर्तव्य है कि वहः
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राज्य के राज्यपाल से संवाद करे और राज्य के मामलों के प्रशासन से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णय और कानूनी प्रस्तावों के सम्बन्ध में राज्यपाल को समय पर अवगत कराए।
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वह राज्यपाल को राज्य के महाधिवक्ता, राज्य लोक सेवा आयोग, राज्य चनाव आयुक्त के सदस्यों एवं अध्यक्ष आदि महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति के संबंध में सलाह देता हैं।
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वह राज्यपाल को विधानसभा को समाप्त तथा भंग करने की सलाह दे सकता हैं।
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वह राज्य के योजना आयोग का अध्यक्ष होता हैं।
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वह नीति आयोग, राष्ट्रीय विकास परिषद एवं अंतर-राज्य परिषद का पदेन सदस्य होता है, जिनके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं।
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वह राज्य सरकार का मुख्य प्रवक्ता होता है।
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वह अपातकाल की स्थिति में राजनैतिक संकट मोचक होता है।
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राज्य मंत्रिपरिषद्ः मुख्यमंत्री को राज्यपाल द्वारा नियुक्त किया जायेगा एवं अन्य मंत्रियों को मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल द्वारा नियुक्ति किया जाता है। अपने पद पर राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त रहते हैं। मंत्रिपरिषद के सदस्य सामूहिक रूप से राज्य विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होते हैं। राज्यपाल मंत्रियों को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है। एक व्यक्ति, जो राज्य विधानमण्डल का सदस्य नहीं है, वह छह महिने से अधिक मंत्री पद पर नहीं रह सकता है। केन्द्र की तरह, राज्यों में भी मंत्रिपरिषद में मंत्री की तीन श्रेणियां होती हैं- 1. कैबिनेट मंत्री, 2. राज्य मंत्री, 3. उप-मंत्री
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राज्य की विधायिका संविधान के भाग 6 के संविधान के अनुच्छेद 168 से 212 राज्य विधानमण्डल की उत्पति संरचना अवधि, प्रक्रिया, विशेषाधिकारों,शक्तियों आदि से संबंधित है।
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विधानपरिषद की सरंचनाः राज्य में विधानपरिषद की स्थिति केन्द्र स्तर पर राज्यसभा के समान हैं। विधानपरिषद की अधिकतम क्षमता विधानसभा की एक तिहाई और न्यूनतम क्षमता 40 तय की गई है। विधानपरिषद के सदस्यों को एकल सक्रमणीय मत के माध्यम आनुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के अनुसार चुना जाता है। संविधान हर राज्य के लिए एक विधानपरिषद का प्रावधान करता है, लेकिन विधायिका, एक सदनीय होगी (केवल एक सदन) या द्विसदनीय (दो सदन) यह निर्णय स्वयं राज्य को लेना होगा वर्तमान में केवल 6 राज्यों में ही द्विसदनीय विधायिका हैं- 1. उत्तर प्रदेश, 2. बिहार, 3. महाराष्ट्र, 4. कर्नाटक, 5. आंध्र प्रदेश, 6. तेलंगाना।
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विधानसभाः विधानसभा राज्य का निम्न सदन है जैसे कि संसद में लोकसभा होती हैं। यह राज्य के लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस सदन के सदस्य सीधे लोगों द्वारा चुने जाते हैं। हर राज्य की विधानसभा के सदस्य 500 से अधिक नहीं एवं 60 से कम नहीं होगें। संविधान कहता है कि राज्यपाल एक आंग्ल-भारतीय को विधानसभा में मनोनीत कर सकता है, यदि उनका सदन में प्रर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो।
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सदस्यों के लिए योग्यताः संविधान के अनुच्छेद 173 के अनुसारः
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वह भारत का नागरिक हो।
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विधानसभा में सीट के मामले में 25 वर्ष से कम आयु का नहीं हो और विधान परिषद के लिए 30 वर्ष की आयु से कम ना हो।
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मंत्री पद की अर्हताएँ: संविधान में मंत्रियों की अर्हताओं से संबंधित प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 164(4) में दिये गये है, जिसमें कहा गया हैं कि, कोई मंत्री, जो निरंतर छह माह कि किसी अवधि तक राज्य के विधानमंडल का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा। इस कथन के आधार पर मंत्री पद की दो अर्हताएँ समझी जा सकती हैं:
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मंत्री बनने के लिए यह आवश्यक है कि, व्यक्ति राज्य के विधानमंडल के दोनों सदनों में से किसी एक सदन का सदस्य हो।
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यदि कोई व्यक्ति राज्य के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य न हो तो भी वह अधिकतम छह माह के लिए मंत्री रह सकता है।
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मंत्रियों द्वारा शपथः किसी मंत्री द्वारा अपना पद ग्रहण करने से पहले राज्यपाल संविधान की तीसरी अनुसूची में इस प्रयोजन के लिए दिए गए प्रारूपों के अनुसार, उसको पद और गोपनीयता की शपथ दिलाता है। संविधान के अनुच्छेद 164 (3) के अनुसार, पद ग्रहण करने के पूर्व मुख्यमंत्री को राज्यपाल के समक्ष दो शपथ लेनी होती हैं- (I) पद के कर्तव्य-पालन की शपथ तथा (II) गोपनीयता की शपथ।
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मंत्रिपरिषद का कार्यकालः सामान्यतः मंत्रिपरिषद् का कार्यकाल पांच (5) वर्षों का होता है, परंतु विधानसभा में अपना बहुमत खोने के पश्चात् मंत्रिपरिषद् अपनी निर्धारित अवधि से पहले हो विघटित हो जाती है। संविधान के अनुच्छेद-365 के अन्तर्गत जब राज्य में राष्ट्रपति शासन आरोपित किया जाता है तो मंत्रिपरिषद् भंग हो जाती है। मुख्यमंत्री के अनुरोध पर भी राज्यपाल द्वारा मंत्रिपरिषद को भंग किया जा सकता है।
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मंत्रियों के उत्तरदायित्वः मंत्रियों के उत्तरदायित्व दो प्रकार के होते हैः
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सामूहिक उत्तरदायित्वः संविधान के अनुच्छेद स्पष्ट करता है कि राज्य के मंत्रिमंडल का सामहिक उत्तरदायित्व विधानसभा के प्रति होगा।
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व्यक्तिगत उत्तरदायित्वः मंत्री राज्यपाल के प्रसादपर्यंत कार्य करते हैं एवं मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल द्वारा इनकी नियुक्ति की जाती है। मुख्यमंत्री से मतभेद की स्थिति में मुख्यमंत्री की सलाह पर राज्यपाल सम्बधित मंत्री को बर्खास्त कर सकता है। इसलिए राज्यपाल के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्व होगा।
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विधानपरिषद की अवधिः राज्यसभा की तरह विधानपरिषद एक सतत् निकाय है अर्थात् यह एक स्थायी निकाय है, जो कि भंग नहीं किया जा सकता है।
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सदनों की शपथ या पुष्टिः विधानमण्डल में अपनी सीट (अपना पद) लेने से पहले दोनों सदनों के सदस्यों को राज्यपाल के समक्ष शपथ या पुष्टि करनी होती हैं।
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विधायिका के पीठासीन अधिकारी
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विधानसभा अध्यक्षः लोकसभा के अध्यक्ष के समान।
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विधानसभा-उपाध्यक्षः लोक के अध्यक्ष की तरह, विधानसभा उपाध्यक्ष भी लोकसभा के उपाध्यक्ष की तरह है।
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विधान परिषद के अध्यक्ष एवं उपाध्यक्षः अध्यक्ष, परिषद के सदस्यों द्वारा अपने में से ही चुना जाता है।
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विधानसभा एवं परिषद की तुलनाः एक साधारण बिल के पारित होने पर दोनों सदनों को समान दर्जा प्राप्त है, लेकिन असहमति के मामले में विधानसभा की शक्ति परिषद से ज्यादा है और संयुक्त बैठक का कोई प्रावधान नहीं हैं। धन विधेयक केवल विधानसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है, विधानपरिषद् में नहीं। विधानपरिषद की राष्ट्रपति के चुनाव में कोई भागीदारी नहीं है। यह संविधान संशोधन विधेयक के समर्थन में भी कोई भागीदारी नहीं होती है विधानपरिषद का अस्तित्व विधानसभा की इच्छा पर निर्भर करता।