ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

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ब्रिटिश शासन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

 

विश्लेषणात्मक अवधारणा

इस अध्याय के अध्ययन का उद्देश्य है कि छात्र यह समझें कि किस तरह से ब्रिटिश शासन ने व्यापारिक क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद देश की घरेलू अर्थव्यवस्था विशेषत: लघु और मध्यम उद्योग, कृषक समाज जनजाति एवं सामान्य जनों में नकारात्मक प्रभाव पड़ा और भारत एक सम्पूर्ण निर्यातक देश से सम्पूर्ण आयातक देश बन गया। इस खंड का एक सार्थक उद्देश्य यह है कि आप समझ पाएं कि किस तरह अंग्रेजों की कुटिलता भरी नीतियों को भारत के तत्कालीन साहित्य में प्रमुखता से स्थान मिलने लगा और नीलदर्पण जैसी प्रसिद्ध कालजयी रचना का सृजन हुआ। समस्त क्रियाकलापों से विद्यार्थी समझ विकसित कर सकेंगे कि किस तरह से भारत में राष्ट्रवाद के बीच अंकुरित होना प्रारंभ हुए। हमें इस निष्कर्ष पर पहुंचना होगा कि राष्ट्रवाद के बिना राष्ट्र कोरी कल्पना है।

 

पृष्ठभूमि

भारत में प्रारंभिक आक्रमणकारियों और ब्रिटिश साम्राज्यवादियों में मुख्य अंतर यह था कि अंग्रेजों के अतिरिक्त किसी अन्य प्रारंभिक आक्रमणकारी ने ही भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचना में परिवर्तन किया और ही धन की निरंतर निकासी का सिद्धांत अपनाया। भारत में ब्रिटिश शासन के फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था, उपनिवेशी अर्थव्यवस्था में रूपांतरित हो गयी तथा भारतीय अर्थव्यवस्था की सभी नीतियां एवं कार्यक्रम उपनिवेशी हितों के अनुरूप बनने लगे।

§  अनौद्योगीकरण अर्थात भारतीय हस्तशिल्प का रास

·         1818 के चार्टर एक्ट द्वारा ब्रिटिश नागरिकों को भारत से व्यापार करने की छूट मिलने के फलस्वरूप, भारतीय बाजार सस्ते एवं मशीन-निर्मित आयात से भर गया। दूसरी ओर, भारतीय उत्पादों के लिये यूरोपीय बाजारों में प्रवेश करना अत्यंत कठिन हो गया।

·         1820 के पश्चात् तो यूरोपीय बाजार भारतीय उत्पादों के लिये लगभग बंद ही हो गये। भारत में रेलवे के विकास ने यूरोपीय उत्पादों को भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों तक

पहुंचने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

§  कृषकों की बढ़ती हुयी दरिद्रता - ब्रिटिश सरकार की रुचि केवल लगान में वृद्धि करने तथा उसका अधिकाधिक हिस्सा प्राप्त करने में थी। इसी लालच की वजह से अंग्रेजों ने देश के कर्इ हिस्सों में भूमि की स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था लागू कर दी। इस व्यवस्था में सरकार की मांग तो स्थिर थी किंतु लगान जो जमींदार, किसान से लेता था वह परिवर्तनशील था, अतएव कालांतर में लगान की दरों में अत्यधिक वृद्धि कर दी गयी।

§  भारतीय कृषि का वाणिज्यीकरण- उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय कृषि में एक और महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ, वह था कृषि का वाणिज्यीकरण। इस समय तक कृषि जीवनयापन का एक मार्ग थी कि व्यापारिक प्रयत्न। अब कृषि पर वाणि ज्यिक प्रभाव आने लगा। अब कुछ विशेष फसलों का उत्पादन राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिये होने लगा कि ग्रामीण उपयोग के लिए। मूंगफली, गन्ना, पटसन, कपास, तिलहन, तम्बाकू, मसालों फलों तथा सब्जियों जैसी वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन बढ़ गया क्योंकि ये फसलें अब अन्न के स्थान पर अधिक लाभदायक सिद्ध होने लगी थीं। संभवत: बागान उद्योगों यथा- चाय, काफी, रबर एवं नील इत्यादि में तो कृषि का वाणिज्यीकरण अपने चरमोत्कर्ष में पहुंच गया।

§  आधुनिक उद्योगों का विकास- 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में भारत में बड़े पैमाने पर आधुनिक उद्योगों की स्थापना की गयी, जिसके फलस्वरूप देश में मशीनी युग प्रारंभ हुआ। भारत में पहली सूती वस्त्र मिल 1853 में कावसजी नानाभार्इ ने बंबर्इ में स्थापित की। इसी प्रकार भारत की पहली जूट मिल 1855 में रिशरा (बंगाल) में स्थापित की गयी।

§  राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग का उदय- भारतीय व्यापारियों, बैंकरों तथा साहूकारों ने भारत में छोटे सहयोगी के रूप में अंग्रेजी व्यापारियों के वित्त से काफी धन कमाया था। अंग्रेजों की साम्राज्यीय शोषण की नीति में उनकी भूमिका ठीक बैठती थी। भारतीय साहूकारों ने ऋण के बोझ से दबे किसानों को ऋण दिये और सरकार के भू-राजस्व संग्रहण में सहायता की।

§  आर्थिक निकास- भारतीय उत्पाद का वह हिस्सा, जो जनता के उपभोग के लिये उपलब्ध नहीं था तथा राजनैतिक कारणों से जिसका प्रवाह इंग्लैण्ड की ओर हो रहा था, जिसके बदले में भारत को कुछ नहीं प्राप्त होता था, उसे आर्थिक निकास की संज्ञा दी गयी। दादा भार्इ नौराजी ने अपनी पुस्तक पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया में सर्वप्रथम आर्थिक निकास की अवधारणा प्रस्तुत की।

§  आर्थिक निकास के प्रमुख तत्व थे

·         अंग्रेज प्रशासनिक एवं सैनिक अधिकारियों के वेतन एवं भत्ते,

·         भारत द्वारा विदेशों से लिये गये ऋणों के ब्याज, नागरिक एवं सैन्य विभाग के लिये ब्रिटेन के भंडारों से खरीदी गयी वस्तुयें,

·         नौवहन कंपनियों को की गयी अदायगी

·         विदेशी बैंकों तथा बीमा लाभांश।

§  औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की राष्ट्रवादी आलोचना - राष्ट्रवादी आर्थिक विश्लेषकों में दादाभार्इ नौरोजी ग्रांड ओल्ड मैन आफ इंडिया का नाम सबसे प्रमुख है। सर्वप्रथम इन्होंने ही ब्रिटिश शासन की आर्थिक नीतियों का विश्लेषण किया तथा अपनी पुस्तक पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया में धन के निकास का सिद्धांत प्रस्तुत किया। दादा भार्इ नौराजी के अतिरिक्त जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे, रोमेश चंद्र दत्त ( इकनॉमिक हिस्ट्री आफ इंडिया), गोपाल कृष्ण गोखले, जी सुब्रह्मण्यम अय्यर तथा पृथ्वीशचंद्र राय भी भारत के प्रमुख आर्थिक विश्लेषकों में से थे। इन राष्ट्रवादी आर्थिक विश्लेषकों ने अपने अध्ययनों से यह सिद्ध किया कि किस प्रकार अनाज एवं कच्चे माल के रूप में भारत का धन इंग्लैण्ड भेजा जाता हैय और फिर किस प्रकार वह विनिर्मित उत्पादों का रूप लेकर भारतीय बाजार पर कब्जा करता है।

 

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