केंद्र एवं राज्यों के मध्य संबंध

केंद्र एवं राज्यों के मध्य संबंध

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विश्लेषणात्मक अवधारणा

 

संघवाद एक इंद्रधनुष की भाँति होता है जहाँ प्रत्येक रंग का अलग अस्तित्व होता है लेकिन वे सभी रंग मिल कर एक सुंदर और सद्भावपूर्ण दृश्य उपस्थित करते हैं। संघीय व्यवस्था केंद्र और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखने का कठिन कार्य करती है। कोई भी कानूनी या संस्थानिक फॉर्मूला संघीय व्यवस्था के सुचारू रूप से कार्य करने की गारंटी नहीं दे सकता। इसकी सफलता के लिए जनता और राजनीतिक प्रक्रिया को पारस्परिक विश्वास, सहनशीलता तथा सहयोग की भावना पर आधारित कुछ गुणों, मूल्यों और संस्कृति का विकास करना चाहिए। संघवाद एकता और अनेकता दोनों का आदर करता है। अनेकता और विविधताओं को समाप्त कर राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। ऐसी बाध्यकारी एकता वास्तव में और ज्यादा सामाजिक संघर्ष तथा अलगाव को जन्म देती है जो अंत में एकता को ही नष्ट कर देती है। विभिन्नताओं और स्वायत्तता की मांगों के प्रति संवेदनशील तथा उत्तरदायी राजनीतिक व्यवस्था ही सहयोगी संघवाद का एकमात्र आधार हो सकती है।

 

संविधान के अनुच्छेद-1 के अनुसार भारत अर्थात् इण्डिया ’राज्यों का एक संघ’ होगा। अतः भारत में मूलतः संघीय शासन प्रणाली को अपनाया गया है। ’संघ और राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन’ संघीय शासन प्रणाली का एक आवश्यक लक्षण है। यद्यपि भारतीय संविधान का स्वरूप संघात्मक है किन्तु भारत के लिए ’फेडरेशन’ शब्द के स्थान पर यूनियन (संघ) शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका कारण यह है कि भारतीय संघ संघटक इकाइयों के मध्य किसी संविदा या समझौते का परिणाम नहीं है बल्कि इसका सृजन स्वयं संविधान द्वारा किया गया है और इसे समाप्त नहीं किया जा सकता है। भारत की संघीय प्रणाली कनाडा के संविधान से प्रेरित है। कनाडा के समान ही भारत में भी संघ तथा राज्यों की शक्तियों का संविधान द्वारा स्पष्ट उल्लेख किया गया है तथा अवशिष्ट शक्तियाँ संघ को प्रदान करते हुए एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की गई हैं। इस प्रकार भारतीय संविधान संघात्मक होते हुए भी केन्द्र के पक्ष में झुका हुआ है और आपात के दौरान तो यह एक प्रकार से एकात्मक स्वरूप ग्रहण कर लेता है, जो देश की एकता और अखण्डता के लिए उचित ही नहीं आवश्यक भी है। उल्लेखनीय है कि, भारतीय संविधान द्वारा विधायी, प्रशासनिक तथा वित्तीय शक्तियों का विभाजन किया गया है किन्तु न्यायिक शक्ति को विभाजन से परे रखा गया है। अतः भारत में न्यायिक प्रणाली एकीकृत है अर्थात् न्यायपालिका शक्ति का संघ और राज्यों के मध्य विभाजन नहीं किया गया है। अतः केन्द्र-राज्य सम्बन्धों को अधोलिखित तीन भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। यथाः

§     विधायी संबंध

·         अनुच्छेद-245: संसद और राज्य विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों का विस्तार।

·         अनुच्छेद-246: संसद और राज्य विधायिका द्वारा बनाए गए विशेष मामलों के कानून।

·         अनुच्छेद-247: कुछ निश्चित अतिरिक्त न्यायालयों के गठन हेतु संसद की शक्ति।

·         अनुच्छेद-249: संसद द्वारा राष्ट्र-हित में राज्य सूची के किसी विषय पर विधान के निर्माण हेतु राज्यसभा द्वारा पहला

·         अनुच्छेद-250: आपातकाल के दौरान राज्यसूची के किसी विषय पर विधि निर्माण की संसद की शक्ति।

·         अनुच्छेद-251: अनुच्छेद-249 और अनुच्छेद-250 के अधीन संसद द्वारा निर्मित विधि के असंगत होने की स्थिति में राज्य-विधि पर वरीयता।

·         अनुच्छेद-252: दो या दो से अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से विधि बनाने की संसद की शक्ति और उस विधि को किसी अन्य राज्य द्वारा अंगीकार किया जाना।

·         अनुच्छेद-253: अंतर्राष्ट्रीय करारों को प्रभावी बनाने के लिए विधान निर्मित करने की संसद की शक्ति।

·         अनुच्छेद-254: संसद द्वारा बनाई विधियों और राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधियों में असंगति की स्थिति में संसद द्वारा बनाई गई विधि प्रभावी।

·         अनुच्छेद-255: सिफारिशों और पूर्व मंजूरी के बारे में अपेक्षाओं को केवल प्रक्रिया का विषय मानना और इस आधार पर उसे खारिज न करना।

§     प्रशासनिक संबंध

·         अनुच्छेद-256: संसद द्वारा निर्मित विधि के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए संघ द्वारा राज्यों को निदेश दिया जाना (राज्य और संघ की बाध्यता)।

·         अनुच्छेद-257: संघ की कार्यपालिका शक्ति के प्रयोग के साथ-साथ राष्ट्रीय/सामरिक महत्व के संचार-साधनों के निर्माण और संरक्षण के संदर्भ में संघ का राज्य पर नियंत्रण

·         अनुच्छेद-258: कुछ मामलों में संघ द्वारा राज्यों को , शक्ति प्रदान करने का संघ का अधिकार।

·         अनुच्छेद-258 (क): राज्य द्वारा केन्द्र को कार्य सौंपने की शक्ति ।

·         अनुच्छेद-26: भारत से बाहर के क्षेत्रों के संबंध में संघ के अधिकार।

·         अनुच्छेद-261: सार्वजनिक कार्य अभिलेख और न्यायिक कार्यवाही।

·         अनुच्छेद-262: अंतर्राज्यीय नदी जल विवादों के हल के लिए न्यायाधिकरण का गठन।

·         अनुच्छेद-263: अंतर्राज्यीय परिषद का गठन।

§     वित्तीय संबंध

·         अनुच्छेद-265: विधि के प्राधिकार के बिना करों का आरोपण नहीं।

·         अनुच्छेद-266: भारत और राज्यों की संचित निधियों और लोकलेखा।

·         अनुच्छेद-267: आकस्मिकता निधि।

·         अनुच्छेद-268: केन्द्र द्वारा लगाए गए, परन्तु राज्यों द्वारा एकत्रित एवं विनियोजित कर।

·         अनुच्छेद-270: संघ द्वारा लगाए गए और संगृहीत किन्तु संघ-राज्य के बीच वितरित किए जाने वाले कर।

·         अनुच्छेद-271: कुछ निश्चित चुंगी व कर पर केन्द्र द्वारा लगाया गया अतिरिक्त प्रभार।

·         अनुच्छेद-274: राज्यों के हितों से संबंधित कराधान वाले विधेयकों के संदर्भ में राष्ट्रपति की पूर्वानुमति आवश्यक।

·         अनुच्छेद-275: कुछ राज्यों को संघ से अनुदान।

·         अनुच्छेद-276: व्यवसाय, व्यापार और रोजगार पर कर।

·         अनुच्छेद-280: राष्ट्रपति द्वारा प्रत्येक पाँचवें वर्ष की समाप्ति पर वित्त आयोग का गठन।

·         अनुच्छेद-281: वित्त आयोग की सिफारिशों को संसद के समक्ष रखा जाना।

·         अनुच्छेद-283: संचित निधि, आकस्मिकता निधि और लोक लेखा में जमा धनराशियों की अभिरक्षा।

·         अनुच्छेद-285: संघ की सम्पत्ति को राज्य के कराधान से छूट।

·         अनुच्छेद-286: वस्तुओं की बिक्री पर कर के अधिरोपण के बारे में निर्बधन।

·         अनुच्छेद-287: विद्युत पर करों से छूट।

·         अनुच्छेद-288: पानी और बिजली के संबंध में राज्यों द्वारा कराधान से कुछ दशाओं में छूट।

·         अनुच्छेद-289: राज्यों की संपत्ति और आय को संघ के कराधान से छूट।

·         अनुच्छेद-292: भारत सरकार द्वारा उधार।

·         अनुच्छेद-293: राज्यों द्वारा उधार।

·         संविधान के अनुच्छेद-246 में 3 सूचिओं का वर्णन किया गया है, जो संविधान की 7वीं अनुसूची में दी गई है। पहली संघ सूची अथवा केन्द्र सूची है, दूसरी राज्य सूची तथा तीसरी समवर्ती सूची है।

 

 

सूचियों का परिचयः सातवीं अनुसूची में तीन सूचियाँ दी गई हैं- संघ या केन्द्र-सूची, राज्य-सूची तथा समवर्ती सूची। तीनों सूचियों का संक्षिप्त परिचय निम्नवत् हैः
  • संघ-सूचीः इसमें वे विषय शामिल हैं, जिन पर कानून बनाने की शक्ति केवल संसद को प्रदान की गयी है। इसमें प्रायः वे विषय शामिल किए गए हैं, जिनका सम्बंध राष्ट्रीय महत्व के विषयों से है। संघ सूची में मूलतः 97 विषय शामिल थे। संविधान लागू होने के बाद इसमें 5 बार संशोधन किए गए हैं। वर्तमान में इस सूची में 100 विषय शामिल हैं।
  • राज्यसूचीः इसमें शामिल विषयों पर राज्य के विधानमण्डलों को कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है। साधारण स्थितियों में संसद इस शक्ति का उल्लंघन नहीं कर सकती। इस सूची में क्षेत्रीय अथवा स्थानीय महत्व के विषय शामिल हैं, जैसे- लोक व्यवस्था, पुलिस, स्थानीय शासन, कृषि, लोक स्वास्थ्य और स्वच्छता, आदि। राज्य सची में मूलतः 66 विषय शामिल थे । बाद में 7वें संविधान संशोधन, 1956 द्वारा 1 विषय को हटाया गया जबकि 42वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा चार विषय को हटा दिया गया। वर्तमान में इस सूची में संख्या की दृष्टि से 61 विषय शेष हैं। समवर्ती-सूचीः इसे तीसरी सूची भी कहते हैं। इसमें शामिल विषयों पर राज्य विधायिका तथा संसद दोनों को विधि निर्माण की शक्ति प्रदान की गयी है। समवर्ती सूची में मूलतः 47 विषय थे। परन्तु बाद में 5 विषय 42वें संविधान संशोधन, 1976 के माध्यम से जोड़े गए। इस प्रकार वर्तमान में समवर्ती सूची के अन्तर्गत कुल 52 विषय हैं।
  • अवशिष्ट शक्तियाँ: संविधान के अनुच्छेद-248 से संबंधित है। इसके अनुसार, ऐसे विषय जो समवर्ती सूची या राज्य सूची में वर्णित नहीं हैं, उन पर विधि बनाने का अधिकार केवल संसद को है। इस शक्ति के अन्तर्गत कर अधिरोपण, जो उन सूचियों में किसी में भी वर्णित विषय नहीं है। उन पर कानून बनाने का अधिकार संसद के पास है।
संसद द्वारा राज्य-सूची के विषयों पर विधि निर्माणः सामान्यतः संसद को राज्य सूची के विषयों पर विधि निर्माण का अधिकार नहीं है परन्तु कुछ आपवादिक परिस्थितियों में संसद, राज्य-सूची के विषयों पर भी विधि निर्माण कर सकती है। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं:
  • राज्यसभा के प्रस्ताव के आधार पर संविधान के अन्तर्गत संविधान के अनुच्छेद-249 में एक विशेष व्यवस्था की गई है। इस अनुच्छेद के अनुसार, यदि राज्यसभा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई समर्थन से यह संकल्प पारित करती है कि राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक या समीचीन है कि संसद राज्य-सूची में शामिल किसी विषय पर विधि बनाए, तो संसद उस विषय पर संकल्प के प्रभावी रहने तक विधि बना सकेगी। राज्यसभा द्वारा पारित ऐसा संकल्प एक वर्ष से अधिक समय तक प्रभावी नहीं रहेगा, परन्तु, राज्यसभा जितनी बार चाहे, उपर्युक्त विधि से इस संकल्प को आगे बढ़ा सकेगी। प्रत्येक बार संकल्प का विस्तार एक वर्ष के लिए होगा। ऐसा संकल्प समाप्त होने के बाद संसद द्वारा निर्मित विधि छह महीने की अवधि पूरी होने पर स्वतः समाप्त हो जायेगी।
  • राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा के दौरानः संविधान के अनुच्छेद-250 में यह प्रावधान किया गया है कि, जब देशों में राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा लागू हो, तब संसद को राज्य-सूची में शामिल विषयों पर भारत या उसके किसी भाग के लिए विधि निर्माण का अधिकार होगा। संसद द्वारा निर्मित ऐसी विधियाँ आपात की उद्घोषणा की समाप्ति के छह महीने की अवधि पूरी होने पर समाप्त हो जाएँगी। परन्तु, संसद को यह शक्ति अनुच्छेद-352 के अन्तर्गत घोषित राष्ट्रीय आपात में ही प्राप्त होती है, अनुच्छेद-360 के अन्तर्गत घोषित वित्तीय आपात में नहीं।
  1. संविधान के अनुच्छेद-251 में यह प्रावधान किया गया है कि, जब आपात की उद्घोषणा के कारण राज्य-सूची के किसी विषय पर संसद द्वारा निर्मित विधि लागू हो, तो उस समय राज्य विधानमंडल को भी उस विषय पर विधि बनाने अधिकार होगा, किन्तु राज्य की विधि उस मात्रा तक अप्रवर्तनीय रहेगी जिस मात्रा तक वह संसद द्वारा निर्मित विधि के विरोध में है।
  2. राज्यों की सहमति या उनके विरोध पर संविधान के अनुच्छेद-252 में कहा गया है कि, यदि दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमंडल संकल्प पारित करके संसद से अनुरोध करते हैं तो संसद राज्य-सूची के किसी विषय पर कानून बना सकेगी। ऐसे अधिनियम का संशोधन या निरसन संसद द्वारा ही किया जा सकेगा। इसके साथ ही, यह भी प्रावधान है कि, यदि कोई अन्य राज्य इस कानून को अपनाना चाहे तो वह अपने विधानमंडल में इस आशय का संकल्प पारित कर उसे स्वीकार कर सकता है। उपर्युक्त प्रावधान के आधार पर संसद ने निम्नलिखित कानून बनाए हैं:
(i) वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972
(ii) जल प्रदूषण (नियंत्रण एवं निवारण) अधिनियम, 1974
(iii) मानव अंग प्रतिरोपण अधिनियम, 1994 आदि।
  • अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को लागू करने के संदर्भ में: संविधान के अनुच्छेद-253 में संसद को यह विशेष शक्ति दी गई है कि, वह भारत सरकार द्वारा किसी अन्य देश के साथ की गई संधि करार अभिसमय या किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, संगठन आदि में किये गये किसी निर्णय को लागू करने के लिए विधि पारित कर सकती है। ऐसी विधि भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए हो सकती है।
राष्ट्रपति शासन के दौरान यदि संविधान के अनुच्छेद-356 के अन्र्तगत किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन या राज्य-आपात की उद्घोषणा की जाती है तो राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ कुछ समय के लिए केन्द्र को प्राप्त हो जाती हैं। संविधान के अनुच्छेद-357 में यह स्पष्ट किया गया है कि, राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ संसद द्वारा या संसद के प्राधिकार के अधीन प्रयोग की जाएंगी।
  • केन्द्र एवं राज्यों के सम्बन्ध में तनाव के मुख्य कारणः भारत की राजनीति में केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीयकरण एवं राज्य के संबंध भी परिवर्तित होते रहे है। ऐसे कुछ मुख्य मुद्दे परिदर्शित होते है, जिन पर केन्द्र एवं राज्य के मध्य संबंध तनावपूर्ण हुए है, जैसेः
  1. राज्यपाल की नियुक्ति तथा उसकी भूमिका।
  2. अनुच्छेद-356 का अत्यधिक प्रयोग।
  3. राज्यों के केन्द्र पर वित्तीय निर्भता के संदर्भ में।
  4. अखिल भारतीय सेवाओं के संदर्भ में।
  5. राज्य सूची के विषयों पर केन्द्र का दखल आदि।
केन्द्र राज्य संबंधो का स्वस्थ रहना संघनात्मक ढाँचे के दीर्घजीवी होने की अनिवार्य शर्त है। अभी तक केन्द्र राज्य संबंध पूर्णतः परिपक्व व स्थिर नहीं हुए है। इसी के संबंध में विभिन्न आयोग एवं समितियों का गठन किया गया है, जिससे भारत में केन्द्र एवं राज्यों के संबंध स्पष्ट हो तथा जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैः  
  1. प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोगः सन, 1966 में केन्द्र सरकार ने मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग का गठन किया। इस आयोग की रिपोर्ट के अध्ययन के लिए एम.सी. सीतलवाड़ के नेतृत्व में एक दल का गठन किया गया, जिसने अपनी अन्तिम रिपोर्ट वर्ष 1969 में केन्द्र सरकार को सौंपी।
  2. राजमन्नार समितिः इस समिति को तमिलनाडू सरकार ने 22 सितम्बर, 1969 को डॉ. पी.वी. राजमन्नार की अध्यक्षता में राज्यों को और अधिक संहायता प्रदान करने के लिए सुझाव देने हेतु गठित किया गया था। इस समिति के अन्य सदस्य थे-डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुलियार और पी.सी. चन्द्रा रेड्डी।
  3. आनंदपुर साहिब प्रस्तावः वर्ष 1973 में अकालीदल पंजाब ने केन्द्र राज्य संबंधों से जुड़े आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित किया, जिसमें केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र को वैदेशिक संबंध, प्रतिरक्षा, रेलवे, मुद्रा और संचार तक सीमित रखने की मांग की गई। इन्ही माँगों के संदर्भ में विचार करने के लिए मार्च, 1983 में सरकारिया आयोग का गठन किया गया।
  4. सरकारिया आयोगः केन्द्र तथा राज्य संबंधों पर विचार करने के लिए 24 मार्च, 1983 को न्यायमूर्ति रणजीत सिंह सरकारिया की अध्यक्षता में तीन सदस्य समिति का गठन किया गया, जिसके अन्य सदस्य शिवरमण तथा एस.आर. सेन थे। इस समिति ने 1987 ई. में अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंपी, जो 1988 में प्रकाशित हुई।
  5. पुंछी आयोगः सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के बाद भारत की राजनीति एवं अर्थव्यवस्था में हुए व्यापक परिवर्तनों को देखते हुए केन्द्र-राज्य संबंधों पर पुनर्विचार करने हेतु केन्द्र सरकार द्वारा 27 अप्रैल, 2007 को भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मदन मोहन पुंछी की अध्यक्षता में 4 सदस्य आयोग का गठन किया गया, जिसके अन्य सदस्य विनोद कुमार दुग्गल, धीरेन्द्र सिंह व एन.आर. माधव मेनन थे। इस आयोग में 31 मार्च, 2010 को अपना प्रतिवेदन केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया।

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