उच्च न्यायालय

उच्च न्यायालय

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 विश्लेषणात्मक अवधारणा

 

भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक प्रणाली की स्थापना करता है। इसका अर्थ यह है कि विश्व के अन्य संघीय देशों के विपरीत भारत में अलग से प्रांतीय स्तर के न्यायालय नहीं है। भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है, जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय, फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधिनस्थ न्यायालय है। भारतीय न्यायपालिका अपनी स्वतंत्रता के लिए भी जानी जाती है। संविधान सभी राज्यों में उच्च न्यायालय की व्यवस्था करता है परन्तु एक से अधिक राज्यों का संयुक्त उच्च न्यायालय भी हो सकता है। इस प्रकार उच्च न्यायालय का एक क्षेत्राधिकार होता है, जिसके अन्तर्गत वह कार्य करता है।

उच्च न्यायालयः संविधान के भाग-6 में अनुच्छेद-214 से अनुच्छेद-231 तक उच्च न्यायालय के विभिन्न प्रावधान दिए गए हैः
  • संविधान में संसद को यह शक्ति प्राप्त है कि प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय का प्रावधान किया जाए, परन्तु 7वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1956 से संसद को यह अधिकार है कि वह दो या दो से अधिक राज्यों एवं एक संघ राज्य क्षेत्र के लिए एक साझा उच्च न्यायालय की स्थापना कर सकती है। वर्तमान में देश में 25 उच्च न्यायालय हैं।
  • जम्मू-कश्मीर व दिल्ली ऐसे केन्द्रशासित प्रदेश है, जिसके पास अपना उच्च न्यायालय है। दिल्ली, उच्च न्यायालय की स्थापना 31 अक्टूबर, 1966 को की गई।
  • संसद विधि के द्वारा किसी उच्च न्यायालय की क्षेत्राधिकार को किसी संघ शासित क्षेत्र के लिए बढ़ा सकती है (अनुच्छेद-230)।
उच्च न्यायालयों का गठनः संविधान के अनुच्छेद-216 में प्रावधान है कि, “प्रत्येक उच्च न्यायालय मुख्य न्यायमूर्ति और ऐसे अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा, जिन्हें राष्ट्रपति समय- समय पर नियुक्त करना आवश्यक समझे।“ संविधान के अनुच्छेद-224 में कहा गया है कि आवश्यकता पड़ने पर अतिरिक्त न्यायाधीशों तथा कार्यवाहक न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा सकेगी।
          नोटः संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या का कोई प्रावधान नहीं है। यह राष्ट्रपति के विवेक पर छोड़ दिया गया है।
न्यायाधीशों की अर्हताएँ: संविधान के अनुच्छेद-217(2) के अनुसार, निम्न व्यक्ति न्यायाधीश बन सकता हैः
  1. भारत का नागरिक हो।
  2. भारतीय राज्य क्षेत्र में कम-से-कम 10 वर्षों तक न्यायिक पद धारण कर चुका हो या कम-से-कम 10 वर्षों तक किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों का अधिवक्ता रहा हो।
न्यायाधीशों की नियुक्तिः संविधान के अनुच्छेद 217 के अनुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा निम्नलिखित से परामर्श करने के पश्चात् की जाएगीः
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश से।
  • संबंधित राज्य के राज्यपाल से।
  • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अलावा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से।
       नोट-सामान्यतः नव-निर्मित रीति के अनुसार, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तथा 21 वरिष्ठतम न्यायाधीशों का मंडल करता है। राष्ट्रपति आम सहमति के द्वारा दी गई सलाह के अनुसार नियुक्ति करता है।
न्यायाधीशों की शपथ या प्रतिज्ञानः उच्च न्यायालय का न्यायाधीश संविधान की तीसरी अनुसूची के अनुसार शपथ ग्रहण करता है। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को राज्य का राज्यपाल तथा अन्य न्यायाधीशों को उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश शपथ दिलाता है। 16वें संविधान (संशोधन) अधिनियम, 1963 के बाद उच्च न्यायालय का न्यायाधीश उसी प्रकार शपथ लेता है, जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिये निर्धारित है। उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की शपथ में मूल संविधान में ’भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूगा प्रावधान नहीं था। शेष शपथ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की शपथ के समान थी। राष्ट्रीय एकता परिषद् के सुझावों पर 16वें संविधान संशोधन द्वारा इसे जोड़ा गया।
न्यायाधीशों का कार्यकालः संविधान के अनुच्छेद 217 के अनुसार, कोई न्यायाधीश तब तक अपना पद धारण करेगा, जब तक वह 62 वर्ष का नहीं हो जाता। इससे पहले भी वह अपना त्याग-पत्र राष्ट्रपति को भेज सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की आयु का निर्धारण संसद द्वारा निर्धारित पदाधिकारी करता है, जबकि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की आयु का निर्धारण भारत के मुख्य न्यायमूर्ति की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है और राष्ट्रपति का विनिश्चय अंतिम होता है। संविधान में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पदावधि से संबंधित कोई निश्चित कार्यकाल नहीं बताया गया है।
न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रियाः संविधान में सिद्ध कदाचार और अक्षमता के आधार पर राष्ट्रपति के द्वारा न्यायाधीशों को निम्नलिखित प्रक्रिया के अनुसार हटा सकता है, जिसके लिए संसद एक विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित करती है।
  • न्यायाधीश जाँच अधिनियम (1968) में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के सम्बंध में निम्न प्रक्रियाएँ वर्णित हैं:
  1. लोकसभा के 100 सदस्यों अथवा राज्यसभा के 50 सदस्यों के हस्ताक्षर पत्र वाले प्रस्ताव को सदन के अध्यक्ष अथवा सभापति को सौंपना होगा।
  2. अध्यक्ष/सभापति प्रस्ताव को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत कर सकता है।
  3. यदि प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता है, तो अध्यक्ष/सभापति आरोपों की जाँच के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन करेगा।
  4.  सदस्यीय समिति के सदस्य- भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) या उच्चतम न्यायालय का कोई अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश, उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश, एक प्रख्यात विधिवेत्ता।
  5. यदि समिति इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि, न्यायाधीश कदाचार का दोषी होने के कारण या अन्य आधार पर अयोग्य है तो सदन इसके विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव पर विचार करता है।
  6. संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रपति के पास संस्तुति के लिए भेजा जाता है तब राष्ट्रपति, न्यायाधीश को हटा सकता है।
वेतन व भत्तेः उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के वेतन व भत्तों को संसद द्वारा निर्धारित किया जाता है। इनमें न्यायाधीशों के कार्यकाल के दौरान अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकते हैं (अपवाद-वित्तीय आपातकाल)। उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का वेतन 2,50,000 रुपए प्रतिमाह एवं अन्य न्यायाधीशों का वेतन 2,25,000 रुपए प्रतिमाह निश्चित किया गया है।
उच्च न्यायालय की अधिकारिताएँ एवं शक्तियाँ
  • उच्च न्यायालय सामान्यतः अपीलीय न्यायालय है। अतः उच्च न्यायालय के समक्ष आने वाले अधिकांश मामले जिला न्यायपालिका के निर्णय के विरुद्ध अपीलों के रूप में आते हैं, परंतु भारत के कुछ उच्च न्यायालयों में सिविल मामले सीधे लाए जा सकते हैं। कलकत्ता,मद्रास व मुम्बई उच्च न्यायालयों के समक्ष सिविल मामले सीधे लाए जा सकते हैं।
  • उच्च न्यायालयों को आपराधिक या दीवानी मामले में किसी प्रकार की आरंभिक अधिकारिता नहीं है, जिसका अभिप्राय है कि, आपराधिक मामले जनपद न्यायालय से अपील के बाद ही उच्च न्यायालय में लाए जा सकते हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव से सम्बंधित विवाद सीधे उच्च न्यायालय में सुने जाते हैं।
  • उच्च न्यायालयों के द्वारा मूल अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, अधिकार पृच्छा, प्रतिषेध और उत्प्रेषण नामक रिटें जारी की जाती हैं।
  • उच्च न्यायालय को अपने भू-भाग के निवासियों के अतिरिक्त उन व्यक्तियों के विरुद्ध भी रिट जारी करने की शक्ति प्राप्त है, जिन्होंने विधि विरुद्ध कोई कार्य सम्बंधित उच्च न्यायालय की अधिकारिता वाले राज्य में किया हो (अनुच्छेद-226)।
  • उच्च न्यायालयों की रिट-अधिकारिता सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा अधिक व्यापक रूप में प्राप्त है। उच्च न्यायालयों के द्वारा मूल अधिकारों की रक्षा के अतिरिक्त अन्य अधिकारों की रक्षा के लिए भी रिट जारी की जा सकती है। संपत्ति का अधिकार वर्तमान में वैधानिक अधिकार है, जिसकी रक्षा के लिए उच्च न्यायालय रिट जारी कर सकता है। उच्च न्यायालय को संविधान की व्याख्या का भी अधिकार है। यह मूल अधिकारों की भी रक्षा करता है और मूल अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च न्यायालयों में जनहित याचिकाएँ भी दायर की जा सकती हैं।
  • अपीलीय न्यायालय-उच्च न्यायालय, मूलतः एक अपीलीय न्यायालय है, इसमें सम्बंधित राज्य क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले अधीनस्थ न्यायालयों के आदेशों के विरुद्ध सुनवाई की जाती है। इसके अंतर्गत दीवानी और आपराधिक दोनों प्रकार के मामलों की सुनवाई की जाती है। जिन मामलों में जनपद न्यायालय ने 7 वर्ष की सजा सुनाई हो, उनके विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। अन्य महत्वपूर्ण मामलों में भी उच्च न्यायालयों में अपील करने का प्रावधान है। राज्य में स्थित सभी अधिकरणों पर उच्च न्यायालय का नियंत्रण होता है तथा इन अधिकरणों के निर्णयों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। केन्द्रीय प्रशासनिक अधिकरण के निर्णयों के विरुद्ध भी उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है।
अधीक्षण की शक्तिः उच्च न्यायालय सम्बंधित राज्य क्षेत्र में स्थित सभी प्रकार के न्यायालयों पर प्रशासनिक नियंत्रण रखता है, राज्य में स्थित अधीनस्थ न्यायालय तथा विभिन्न अधिकरणों पर उच्च न्यायालय को अधीक्षण की शक्ति प्राप्त है। अधीनस्थ न्यायालयों के किसी भी न्यायाधीश के विरुद्ध उच्च न्यायालय अनुशासनात्मक कार्यवाही कर सकता है। जनपद न्यायाधीशों को अवकाश देने का अधिकार भी उच्च न्यायालयों को है। जनपद न्यायाधीशों को राज्यपाल के द्वारा अपने पद से तभी हटाया जाएगा, जब उच्च न्यायालय के द्वारा इस सम्बंध में अनुशंसा की जाए। उच्च न्यायालय की अधीक्षण शक्ति में सैन्य न्यायालय शामिल नहीं हैं।
अभिलेख का न्यायालयः उच्चतम न्यायालय की तरह उच्च न्यायालय भी एक अभिलेख न्यायालय है। उच्च न्यायालय के निर्णय, कार्यवाही और कार्य लिखित रूप में होते हैं तथा उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णयों को साक्ष्य के रूप में सुरक्षित रखा जाता है। ये निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों मे साक्ष्य के रूप में मान्य होते हैं। उच्च न्यायालयों को न्यायालय की अवमानना पर साधारण कारावास, आर्थिक दण्ड अथवा दोनों प्रकार के दण्ड देने का अधिकार है।
न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्तिः उच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति राज्य विधानमण्डल व केन्द्र सरकार दोनों के अधिनियमों और कार्यकारी आदेशों की संवैधानिकता के परीक्षण के लिए है। यदि वे संविधान का उल्लंघन करते हैं, तो उन्हें असंवैधानिक अथवा अमान्य (शून्य) घोषित किया जा सकता है। परिणामस्वरूप सरकार उन्हें लागू नहीं कर सकती है।
अधीनस्थ न्यायालयः भारतीय संविधान के भाग-VI के अध्याय-6 के अंतर्गत अनच्छेद 223 से 237 में अधीनस्थ न्यायालयों की चर्चा की गई है। इसके अलावा इन न्यायालयों की अधिकारिताएँ, शक्तियाँ और कार्य मख्यतः ’सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908’ तथा ’आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973’ से तय होते है।
  • अधीनस्थ न्यायपालिका का ढाँचाः जिला न्यायाधीश किसी जिले का सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी होता है। यह सिविल तथा आपराधिक दोनों मामलों में अधिकारिता रखता है। जब वह सिविल मामले देखता है तो उसे “जिला न्यायाधीश’ कहते हैं एवं आपराधिक मामलों को देखने के दौरान उसे ’सत्र न्यायाधीश’ कहा जाता है।
वर्तमान में अधीनस्थ न्यायालयों के सोपानक्रम
  • ग्राम न्यायालयः विधि एवं न्याय मंत्रालय ने न्याय प्रणाली को आम जन-मानस के निकट ले जाने के लिये “ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008.’ संसद में पारित किया। इसके तहत 2 अक्टूबर, 2009 से कुछ राज्यों में ग्राम न्यायालय कार्य करने लगे। ग्राम न्यायालय में प्रथम श्रेणी में मजिस्ट्रेट स्तर का न्यायाधीश होता है, जिसे ’न्यायाधिकारी’ कहा जाता है। इसकी नियुक्ति संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के परामर्श से राज्य सरकार करती है
  • ग्राम न्यायालय सिविल तथा आपराधिक दोनों मामले देखता है। ऐसे मामलों की सूची ’ग्राम न्यायालय अधिनियम’ की अनुसूची में दी गई है
  • एक तरफ जहाँ यह 2 वर्षों की अधिकतम सजा वाले आपराधिक मामले को देखता है तो वहीं दूसरी तरफ सिविल मामलों के अंतर्गत वह ’न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948’, सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955, बंधुआ मज़दूरी ( उन्मूलन) अधिनियम, 1976, ’घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005’, के अंतर्गत आने वाले मामले भी देखता है। इसमें सिविल मामलों में आपसी समझौते से मामला निपटाने की कोशिश की जाती है तो आपराधिक मामलों में प्ली बार्गेनिंग के माध्यम से अभियुक्तों को अपना अपराध स्वीकार करने का मौका दिया जाता है।

 

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