जैव विकास

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जैव विकास

 

विश्लेषणात्मक अवधारणा

 

पृथ्वी पर जीवन के उद्भव को समझने के लिए ब्रह्मांड और पृथ्वी के उद्गम की जानकारी की पृष्ठभूमि अपेक्षित है। अधिकांश वैज्ञानिकों का विश्वास रासायनिक विकास में है अर्थात् जीवन के प्रथम कोशिकीय रूपों के उदय के पूर्व द्वि-अणु पैदा हुए। प्रथम जीवों के बाद की उत्तरोत्तर घटनाक्रम कल्पना मात्र है जिसका आधार प्राकृतिक वरण द्वारा जैव विकास संबंधी डार्विन का विचार है। करोड़ों वषोर्ं के दौरान जीवन में विविधता रही है। माना जाता है कि जीव संख्या की विविधता परिवर्ती चरणों के दौरान हुर्इ।

 

जीवन की उत्पत्ति - पृथ्वी की उत्पत्ति लगभग 4.6 अरब वर्ष पूर्व हुर्इ तथा उसके पश्चात में इस पर जीवन की उत्पत्ति हुर्इ। जीवन के उद्भव का अर्थ है-अजैव पदाथोर्ं से सरलतम प्रारंभिक जीवन का प्रकट होना। विकास का अर्थ है - सरल जीवों से जटिल जीवों का क्रमिक रूप से प्रादुर्भाव।

जीवन के उद्भव का रसायनसंश्लेषी सिद्धांत - जीवन के उद्भव (जीवन की उत्पत्ति) की व्याख्या करने के लिए अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए। उनमे से ‘‘रासायनिक उद्विकास के परिणामस्वरूप जीवन की उत्पत्ति’’ सबसे आधुनिक मानी गर्इ है। इससे संबंधित विस्तृत और सर्वमान्य परिकल्पना बायोकेमिस्ट .आर्इ. ओपैरिन ने भौतिकवाद-ओपेरिन की परिकल्पना प्रस्तुत की, जो उनकी पुस्तक ‘जीवन की उत्पत्ति’ (Origin Of Life) में सम्मिलित की गर्इ। अन्य सिद्धान्त जैसे स्वत:जनन का सिद्धान्त आज केवल ऐतिहासिक महत्व का सिद्धान्त है।

पृथ्वी पर जीवन का उद्भव सर्वप्रथम रसायनसंश्लेषी सिद्धान्त - रासायनिक पदाथोर्ं के एक क्रमबद्ध संयोजनों से सूदूर भूतकाल में हुर्इ और यह सब कुछ जल में हुआ। जीवन की उत्पत्ति से सम्बंधित तथ्य निम्नलिखित हैं - i. जीवन की शुरुआत यानी प्रारंभिक जीवों की उत्पत्ति आज से लगभग 4 अरब वर्ष पूर्व, समुद्र के जल में न्यूक्लिओप्रोटीन्स के (वाइरस जैसे) कणों के निर्मित होने से हुर्इ, जिनकी प्रकृति परपोषी एवं अवायुवीय थी। ii. 3.8 अरब वर्ष पूर्व झिल्ली वाले प्रोकैरियाटिक कोशिका वाले आदिजीव उत्पन्न हुए, जिनमें पहले परपोषण तथा बाद में स्व:पोषण (Autotrophic Nutrition) की प्रक्रिया शुरू हुर्इ। स्वपोषी आदि जीव वर्तमान के नीले-हरे शैवालों के समरूप थे। पपप. लगभग 2 अरब वर्ष पूर्व यूकैरियाटिक कोशिकाएं बनी, जिनसे वर्तमान जीव-जगत के सम्पूर्ण जीव जगत (अपवाद जीवाणु) की उत्पत्ति हुर्इ।

जैव विकास की मौलिक परिकल्पना एवं सिद्धांत

जैव विकास - भूवैज्ञानिक काल के दौरान सरल प्रकार के पूर्वजों से ‘‘परिवर्तन’’ के फलस्वरूप जटिल जीवों का बनना विकास या जैव विकास कहलाता है। अंतत: सरलतम जीवों से, क्रमिक परिवर्तनों द्वारा, अधिक विकसित एवं जटिल जीवों की उत्पत्ति को जैव विकास कहते है। लैमार्क, चार्ल्स डार्विन, ह्यूगो डी वीज आदि वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च के आधार पर जैव विकास की विस्तृत व्याख्याओं के आधार पर अपने सिद्धांत दिए।

लैमार्कवाद (Lamarkism) - जैव विकास परिकल्पना पर पहला तर्कसंगत सिद्धांत जीन बैप्टिस्टे डी लैमार्क ने प्रस्तुत किया, जो 1809 इसे लैमार्क का सिद्धांत या लैमार्कवाद कहते हैं। इसमें निम्नलिखित मूल धारणाएं शामिल थी - जीवों के बड़े होने की प्रवृत्ति, जीवों पर वातावरण का सीधा प्रभाव, अंगों के उपयोग अनुपयोग का प्रभाव ( Effect of Use and discus of organs), जीवों में उपार्जित लक्षणों की वंशागति (Inheritance of acquired characters) लैमार्कवाद को ‘उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धांत’ भी कहा जाता हैं। अंगों के उपयोग एवं अनुप्रयोग के आधार पर, जीवों में अधिक प्रयोग किए जाने वाले अंग सु–ढ़ एवं सुविकसित हो जाते हैं तथा वे अंग जिनका प्रयोग नगण्य होता है वे अक्रिय तथा समय के साथ विलुप्त हो जाते हैं। जैसे की जिराफ की गर्दन का लंबा होना तथा सर्पो में पैरों का अभाव।

डार्विनवाद (Darwinism) - चार्ल्स डार्विन के विकासवाद को डार्विनवाद या प्राकृतिक वरणवाद (Theory Of Natural Selection) कहते हैं। इसकी सम्पूर्ण व्याख्या इनकी पुस्तक ‘‘प्राकृतिक चुनाव द्वारा जातियों की उत्पत्ति’’ में सम्मिलित की गर्इ है। इस सिद्धांत में निम्नलिखित तथ्य शामिल किए गए है - जीवों में

प्रचुर सन्तानोत्पत्ति की क्षमता (Enormous), प्रत्येक जीव-जाति की स्थायी, सन्तुलित आबादी (Constant Population), जीवन संघर्ष, विभिन्नताएं और इनकी वंशागति (Variation And their inheritance), योग्यतम की अतिजीविता (Survival of Fittest)

 

नव - डार्विनवाद (Neo- Darwinism) - डार्विन के पश्चात् इनके समर्थकों द्वारा डार्विनवाद को जीन वाद के रूप में परिवर्तित किया गया, जिसे नव-डार्विनवाद कहा जाता है। नवडार्विनवाद को आधुनिक संश्लेषिकवाद परिकल्पना (Modern Synthetic Theory) भी कहते हैं। इसके अनुसार, किसी जाति पर कर्इ कारको का एक साथ प्रभाव होता है, जिससे इस जाति से नयी जाति उत्पन्न होती है। ये कारक जीन उत्परिवर्तन, गुणसूत्रों की. संरचना एवं संख्या में परिवर्तन द्वारा विभिन्नताएं, आनुवंशिक पुनर्योजन (Genetic Recombination), पृथक्करण (Isolation) हैं। इस प्रकार नव - डार्विनवाद के अनुसार जीन में साधारणतया परिवर्तनों के परिणामस्वरूप जीवों की नयी जातियां उत्पन्न होती हैं, जिनमें जीन परिवर्तन के कारण भिन्नताएं बढ़ जाती हैं।

उत्परिवर्तनवाद (Muttation Theory) - नर्इ जाति (Species) की उत्पत्ति एक ही बार में स्पष्ट एवं स्थायी (वंशागत) आकस्मिक उत्परिवर्तनों के परिणामस्वरूप होती है। जाति का पहला सदस्य जिसमें उत्परिवर्तित लक्षण प्रदर्शित होते हैं। उत्परिवर्ती (Mutant) कहलाता है। जाति के विभिन्न सदस्यों में विभिन्न प्रकार के उत्परिवर्तन हो सकते हैं।

 

जीवों की तुलनात्मक रचना

समजात अंग- ऐसे अंग जो विभिन्न कायोर्ं में उपयोग होने के कारण काफी असमान हो सकते हैं लेकिन उसकी मूल संरचना एवं भ्रूणीय प्रक्रिया में समानता होती है, समजात अंग (Homologous Organ) कहलाते हैं।

समरूप अंग- ऐसे अंग जो समान कायोर्ं में उपयोग होने के कारण समान दिखार्इ पड़ते हैं, लेकिन उनकी मूल संरचना एवं भ्रूणीय प्रक्रिया में भिन्नता पायी जाती है, समरूप अंग (Analogous Organ) कहलाते हैं।

 

 

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