राज्य के नीति-निदेशक तत्व एवं मूल कर्तव्य

राज्य के नीति-निदेशक तत्व एवं मूल कर्तव्य

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विश्लेषणात्मक अवधारणा

 

संविधान निर्माताओं को पता था कि स्वतंत्र भारत को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। इसमें सभी नागरिकों में समानता लाना और सबका कल्याण करना सबसे बड़ी चुनौती थी। उन लोगों ने यह भी सोचा कि इन समस्याओं को हल करने के लिए कुछ नीतिगत निर्देश जरूरी हैं। लेकिन इसके साथ ही वे इन नीतियों को भावी सरकारों के लिए बाध्यकारी भी नहीं बनाना चाहते थे।

संविधान में कुछ निदेशक तत्वों का समावेश तो किया गया लेकिन उन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू करवाने की व्यवस्था नहीं की गई। इसका अर्थ यह हुआ कि यदि सरकार किसी निदेश को लागू नहीं करती तो हम न्यायालय में जाकर यह माँग नहीं कर सकते कि उसे लागू कराने के लिए न्यायालय सरकार को आदेश दे। इसीलिए कहा जाता है कि नीति-निदेशक तत्व वाद योग्य नहीं हैं।

नागरिकों के मौलिक कर्तव्य वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन के द्वारा जोड़े गए। अन्य प्रावधानों के अलावा इस संशोधन से संविधान में नागरिकों के मल कर्तव्यों की एक सूची का समावेश किया गया, जिसमें कल 10 कर्तव्यों का उल्लेख किया गया। वर्तमान में मूल कर्तव्यों की संख्या 11 है।

 

भारतीय संविधान के निर्माताओं ने नागरिकों के सार्वभौमिक विकास के लिए अधिकारों की एक विस्तृत व्यवस्था का निर्माण किया। इसी के साथ उन्होंने भावी भारत की सरकारों के कार्यक्रमों की एक रूपरेखा प्रस्तुत की जिन्हें अपनाकर भारत के लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना के सपने को साकार किया जा सके।

 

नीति-निदेशक तत्वों का अर्थ और स्वरूप

भारतीय संविधान के भाग-4 (अनुच्छेद 36-51) में राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया है। निदेशक सिद्धांतों या तत्वों का आशय उन आधारभूत तत्वों से है जिनके सन्दर्भ में संविधान निर्माताओं का यह विश्वास था कि वे भारत की भावी सरकारों द्वारा नीतियों के निर्धारण में दिशा निर्देश का कार्य कर सकते। हैं। इन सिद्धांतों का कोई वैधानिक आधार नहीं है और न ही ये कोई वैधानिक उपचार देते हैं। इसके बावजूद - राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों ने दीप स्तंभ का कार्य किया। संविधान निर्माताओं का मानना था कि मौलिक अधिकारों के द्वारा ‘राजनीतिक लोकतंत्र‘ की आधारशिला रखना तभी सार्थक होगा जब उसके साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की जाए। इस उद्देश्य से उन्होंने नीति-निदेशक सिद्धांतों के रूप में कतिपय ऐसे सिद्धांतों की रचना की जिनको क्रियात्मक रूप देकर लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की जा सके।

Ø    नीति-निदेशक तत्वों के बारे में विभिन्न विचार

·         डॉ राजेंद्र प्रसाद के अनुसारः ‘राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का उद्देश्य जनता के कल्याण को प्रोत्साहित करने वाली सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना है।

·       ग्रेनविले ऑस्टिनः प्रसिद्धि संविधानविद ग्रेनविले ऑस्टिन ने अपनी पुस्तक द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन कॉर्नर स्टोन ऑफ ए नेशन में ‘निदेशक तत्वों और मूल अधिकारों को संविधान की मूल आत्मा कहा है।

·         एम.सी. सीतलवाड़ः भारत के पूर्व महान्यायवादी एम. सी. सीतलवाड़ के अनुसार निदेशक तत्व प्रस्तावना को विस्तृत रूप देते हैं जिससे नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता समानता, बंधुत्व को बनाए रखने में सहायता मिलती है।

 

Ø     नीति-निर्देशक तत्वों एवं मौलिक अधिकार में अन्तर

नीति -निर्देशक तत्व

मौलिक अधिकार

ये आयरलैंड के सविधान से से लिए गए है।

ये संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिए गए है।

इनका वर्णन संविधान के भाग-4 में किया है।

इनका वर्णन संविधान के भाग-3 में किया गया है।

इन्हें लागू कराने के लिए न्यायालय नहीं जाया जा सकता है क्योंकि ये वाद योग्य नहीं है।

इन्हें लागू कराने के लिए न्यायालय की शरण ले सकते है। क्योंकि ये वाद योग्य है।

ये समुदाय के कल्याण को मुदाय के कल्याण को प्रोत्साहित करते है, इस तरह ये समाजवादी है।

ये व्यक्तिगज कल्याण को प्रोत्साहन देते है, इस प्रकार ये स्तवः वैयक्तिक है।

उनका उद्देश्य सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।

इनका उद्देश्य देश में लोकतात्रिक राजनैतिक व्यवस्था स्थापित करना है।

यह मूल प्रकृति में सकारात्मक है क्योकिं राज्य को कुछ मामलों में इनकी आवष्यकता होती है।

यह अपनी मूल प्रवृत्ति में नकारात्मक हैं क्योंकि ये राज्य को कुछ मामलों में कार्य करने से प्रतिबंधित करते है।

ये राज्य सरकार के द्वारा लागू करने के बाद ही नागरिक को प्राप्त होते है।

ये अधिकार नागरिकों को स्वतः प्राप्त हो जाते है।

 

संविधान में वर्णित नीति-निदेशक तत्वों का वर्गीकरणः संविधान में नीति-निदेशक तत्वों का कोई वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्रो. एम.पी. शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘द कॉन्स्टीटडूशन ऑफ इंडियन रिपब्लिक‘ में इन्हें तीन भागों में वर्गीकृत किया है, जो इस प्रकार हैं-

1. समाजवादी तत्व, 2. उदारवादी तत्व, 3. गाँधीवादी तत्व।

1. समाजवादी तत्वः ये वे तत्व हैं, जिनका उद्देश्य भारत में भारत में सामाजिक न्याय पर आधारित समाज के समतावादी ढांचे की स्थापना करना है। ये इस प्रकार हैं:

(i) राज्य अपने आर्थिक साधनों के अनुसार और विकास की सीमाओं के यह प्रयास करेगा कि सभी नागरिक अपनी योग्यता के अनुसार रोजगार पा सकें।                                      (अनुच्छेद 39-A)

(ii)  राज्य इस बात का ध्यान रखेगा कि सम्पत्ति और उत्पादन के साधनों का इस प्रकार से केंद्रीयकरण नहो कि सार्वजनिक हित को किसी प्रकार की हानि पहुँचे।                             (अनुच्छेद 39-B)

(iii) राज्य देश के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियंत्रण की ऐसी व्यवस्था करेगा कि अधिक-से-अधिक लोगों का सार्वजनिक हित हो सके।                                                  (अनुच्छेद 39-C)

(iv) राज्य प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करेगा।                                                                                                                                 (अनुच्छेद 39-D)

(v) राज्य महिलाओं, पुरुषों एवं बच्चों के लिए स्वास्थ्य का समुचित प्रबंध करेगा। बच्चों को आर्थिक आवश्यकताओं के चलते कोई ऐसा कार्य न करना पड़े जो उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो।

                                                                                                                                                                                                                                           (अनुच्छेद 39-E)

(vi) राज्य अपने साधनों के अनुरूप यह सुनिश्चित करेगा कि बेरोजगारी, वृद्धावस्था, अंगहीनता आदि स्थितियों में सार्वजनिक सहायता दी जा सके।                                               (अनुच्छेद-41)

(vii) राज्य इस बात का प्रयास करेगा कि कृषि और उद्योग में लगे हुए सभी मजदूरों को अपने जीवन निर्वाह हेतु यथोचित पारिश्रमिक मिल सके। उनका जीवन स्तर उठ सके, वे अवकाश के समय का उचित उपयोग कर सकें तथा उन्हें सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नति का अवसर प्राप्त हो सके                                                                                                                              (अनुच्छेद 43 )

2. उदारवादी तत्वः इस श्रेणी में उन तत्वों को शामिल किया गया है जिनका उद्देश्य व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं गरिमा की रक्षा करना और उसे ऐसा वातावरण उपलब्ध कराना है जिसमें वह अपना विकास कर सके। इस श्रेणी से संबंधित मुख्य निदेशक तत्व निम्नांकित हैं:

(i) राज्य अपने सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता का निर्माण करेगा                                                                                                                                      (अनुच्छेद-44)

(ii) राज्य 14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करेगा                                                                                                                       (अनुच्छेद-45)

(iii) राज्य अपनी सेवाओं में कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य पृथक्करण का प्रयास करेगा                                                                                                               (अनुच्छेद-50)

(iv) राज्य आवश्यकतानुसार निःशल्क वैधानिक सहायता उपलब्ध कराएगा                                                                                                                                           (अनुच्छेद 39-।)।

(v) राज्य औद्योगिक प्रतिष्ठानों के प्रबन्ध में कर्मचारियों को भागीदारी प्रदान करने के लिए समुचित कदम उठाएगा                                                                                            (अनुच्छेद 43-।)।

(vi) राज्य ऐतिहासिक महत्व के स्थानों की रक्षा करेगा                                                                                                                                                                       (अनुच्छेद-49)

(vii) राज्य अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा, राष्ट्रों के मध्य सम्मानपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना तथा अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने की दिशा में प्रयास करेगा               (अनुच्छेद-51)

(viii) राज्य काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित कराने एवं महिला कर्मचारियों की प्रसूति सहायता के लिए उपबन्ध करेगा                                                    (अनुच्छेद-42)

3. गांधीवादी तत्वः इस श्रेणी में वे तत्व आते हैं जो गाँधीवादी दर्शन से प्रभावित है:

(i) राज्य स्थानीय स्वशासन की इकाइयों के रूप में ग्राम-पंचायतों का गठन करेगा                                                                                                                                       (अनुच्छेद 40)

(ii) राज्य कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जाति या जनजाति के सदस्यों के आर्थिक एवं शैक्षणिक हितों के पोषण का प्रयत्न करेगा                                                                   (अनुच्छेद-46)

(iii) राज्य औषधि के उद्देश्य से प्रयोग को छोड़कर मादक द्रव्यों तथा अन्य मादक पदार्थों के सेवन पर प्रतिबन्ध लगाएगा                                                                                     (अनुच्छेद-47)

(iv) राज्य ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों की स्थापना का प्रयास करेगा                                                                                                                                                      (अनुच्छेद-43)

(v) राज्य गाय, भैंस आदि दुधारू पशुओं के वध रोकने हेतु विधि निर्माण करेगा                                                                                                                                          (अनुच्छेद-48 )

 

Ø    राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों के पीछे संस्तुतिः संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बी.एन.राव ने इस बात की संस्तुति की थी कि, वैयक्तिक अधिकारों को दो श्रेणियों न्यायोचित एवं गैर-न्यायोचित में बाँटा जाना चाहिए, जिसे प्रारूप समिति द्वारा स्वीकार कर लिया गया। इस तरह न्यायोचित प्रकृति वाले मूल अधिकारों को भाग-3 में उल्लिखित किया गया और गैर-न्यायोचित निदेशक तत्वों को संविधान के भाग-4 में रखा गया।

Ø    नीति-निदेशक तत्वों की आलोचनाः संविधान निर्माण के समय से ही निदेशक तत्व आलोचना के विषय रहे हैं। उनके सम्बन्ध में पहली आलोचना यह है कि ये केवल पवित्र घोषणाएँ हैं। उससे अधिक कुछ नहीं बल्कि इन्हें कानून द्वारा नहीं मनवाया जा सकता। प्रो. के. टी. शाह ने संविधान सभा में कहा था कि ये ऐसा चैक है जिसका भुगतान बैंक की इच्छा पर निर्भर है। दूसरी आलोचना यह है कि इन तत्वों में अधिकतर ऐसी बातें हैं, जो काल्पनिक हैं। तीसरी आलोचना यह है कि, ये अस्पष्ट हैं। उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद इनका विशिष्ट महत्व है। चूंकि ये संविधान में उल्लिखित हैं, इसलिए ये सभी को सरकारों के कर्तव्यों की याद दिलाते हैं। यदि कोई सरकार इनकी उपेक्षा करती है तो विरोधी दल इनके आधार पर सरकार की आलोचना कर सरकार को इनके अनुसार कार्य करने को बाध्य कर सकते हैं। इनमें से कतिपय तत्वों के आधार पर विधि निर्माण भी हुआ है।

Ø    मूल कर्तव्यः भारतीय संविधान में भाग-4 (क) के तहत अनुच्छेद-51-(क) जोड़कर इसके अन्तर्गत नागरिकों के लिए 42वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर शामिल किया गया था। 86वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के द्वारा 11वाँ मूल कर्तव्य जोड़ा गया था। भारत के प्रत्येक नागरिक के निम्न मूल कर्तव्य होंगेः

·         संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे।

·        स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखें और उनका पालन करें।

·         भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें और उसे अक्षुण्ण रखें।

·         देश की रक्षा करें और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करें।

·         भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं।

·         हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझें और उसका परिरक्षण करें।

7.      प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्यजीव हैं, रक्षा करें और उसका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखें।

8.      वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें।

9.      सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें।

10.    व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करें जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रयत्न और उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले।

11.    सभी माता-पिता या संरक्षक है छह वर्ष से चैदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करे।

 

Ø    मूल कर्तव्यों की विशेषताएँ: निम्नलिखित बिंदुओं को मूल कर्तव्यों की विशेषताओं के संदर्भ में उल्लिखित किया जा सकता हैः

1.मौलिक कर्तव्यों में से कुछ कर्तव्य नैतिक हैं, तो कुछ नागरिक। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय ध्वज एवं राष्ट्रगान का आदर करना नागरिक कर्तव्य, जबकि स्वतंत्रता संग्राम के उच्च आदर्शों का सम्मान एक नैतिक कर्तव्य है।

2. ये मूल्य भारतीय परम्परा, पौराणिक कथाओं, धर्म एवं जीवन पद्धतियों से सम्बंधित हैं।

3. मूल कर्तव्य केवल नागरिकों के लिए हैं, न कि विदेशियों के लिए।

इनके उल्लंघन के विरुद्ध कोई कानूनी संस्तुति नहीं है, यद्यपि, संसद उपयुक्त विधान द्वारा इनके क्रियान्वयन के लिए स्वतंत्र है।

 

Ø    मूल कर्तव्यों का महत्वः आलोचनाओं के बावजूद, मूल कर्तव्यों के महत्व को निम्नलिखित दृष्टिकोण के आधार पर रेखांकित किया जा सकता हैः

1. मूल कर्तव्य समाज विरोधी एवं राष्ट्र विरोधी गतिविधियों, जैसे- सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने, राष्ट्रीय ध्वज को जलाने आदि चेतावनी के रूप में कार्य करते हैं। नागरिक जब अपने अधिकारों का प्रयोग करते हैं, तब मूल कर्तव्य सचेतक के रूप में सेवा करते हैं।

2. नागरिकों को अपने देश, अपने साथी नागरिकों और अपने समाज के प्रति अपने कर्तव्यों के सम्बंध में भी जानकारी रखनी चाहिए।

3. मूल कर्तव्य नागरिकों के लिए प्ररेणा स्रोत हैं, जो नागरिकों ऋऋमें अनुशासन और प्रतिबद्धता को बढ़ाते हैं।

4. मूल कर्तव्य, अदालतों को किसी विधि की संवैधानिक वैधता एवं उनके परीक्षण के सम्बंध में सहायक होते हैं।

 


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