भारत की मृदा

भारत की मृदा

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भारत की मृदा

 

विश्लेषणात्मक अवधारणा

मृदा एक ऐसा महत्वपूर्ण संसाधन है जिस पर समस्त वनस्पति जगत आधारित है एवं वनस्पति जगत पर ही समस्त मानवीय जगत आश्रित है। प्रस्तुत पाठ ‘‘मृदा-संसाधन’’ के अध्ययन से हम मृदा का महत्व, भारत की प्रमुख मृदा व उसकी विशेषताएं, भूमिक्षरण व मृदा संरक्षण की विधियों को समझ सकेंगे।

 

मृदा

  • दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम जिस मिट्टी पर निर्भर करते हैं उसका विकास हजारों वषो में होता है।
  • अपक्षय और क्रमण के विभिन्न कारक जनक, सामग्री पर कार्य करके मृदा की एक पतली परत का निर्माण करते हैं।
  • मृदा शैल, मलवा और जैव सामग्री का सम्मिश्रण होते हैं जो पृथ्वी की सतह पर विकसित होते हैं।
  • मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक हैं-उच्चावच, जनक सामग्री, जलवायु, वनस्पति तथा जीव रूप और समय। इनके अतिरिक्त मानवीय क्रियाएं भी पर्याप्त सीमा तक इसे : प्रभावित करती हैं।
  • मृदा के घटक खनिज कण, ह्यूमस, जल तथा वायु होते हैं। इनमें से प्रत्येक की वास्तविक मात्रा मृदा के प्रकार पर निर्भर करती है।

 

मृदा का वर्गीकरण

  • भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आर्इ.सी.ए.आर.) के तत्वावधान में राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो ने भारत की मृदाओं पर बहुत से अध्ययन किए। मृदा के अध्ययन तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे तुलनात्मक बनाने के प्रयासों के अंतर्गत ICAR ने भारतीय मृदाओं को उनकी प्रकृति और उनके गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया है।
  • यह वर्गीकरण संयुक्त राज्य अमेरिका के कृषि विभाग (यू.एस. डी.ए.) की मृदा वर्गीकरण पद्धति पर आधारित है जो इस प्रकार है- इसेप्टीसोल्स (39.74%), एंटीसोल्स (28.08%), एल्फीसोल्स (13.55%), वर्टीसोल्स (8.52%), एरीडीसोल्स (4.28%), अल्टीसोल्स (2.51%), मॉलीसोल्स (0.40%), अन्य (2.92%)
  • उत्पत्ति, रंग, संयोजन तथा अवस्थिति के आधार पर भारत की मिट्टियों को जिन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है वे हैं-

जलोढ़ मृदा, काली मृदा, लाल व पीली मृदा, वन मृदा।

 

जलोढ़ मृदाएं

  • जलोढ़ मृदाएं उत्तरी मैदान और नदी घाटियों के विस्तृत भागों में पार्इ जाती हैं। ये मृदाएं देश के कुल क्षेत्रफल के लगभग 40% भाग को ढके हुए हैं।
  • ये निक्षेपण मृदाएं हैं जिन्हें नदियों और सरिताओं ने वहित तथा निक्षेपित किया है। राजस्थान गलियारे से होती हुर्इ ये मृदाएं गुजरात के मैदान में फैली मिलती हैं।
  • प्रायद्वीपीय प्रदेश में ये पूर्वी तट की नदियों के डेल्टाओं और नदियों की घाटियों में पार्इ जाती हैं।
  • जलोढ़ मृदाएं गठन में बलुर्इ दुमट से चिकनी मिट्टी की प्रकृति की पार्इ जाती हैं। सामान्यत: इनमें पोटाश की मात्रा अधिक और फॉस्फोरस की मात्रा कम पार्इ जाती है।
  • गंगा के ऊपरी और मध्यवर्ती मैदान में ‘खादर’ और ‘बांगर’ नाम की 2 भिन्न मृदाएं विकसित हुर्इ है। खादर प्रतिवर्ष बाढों के द्वारा निक्षेपित होने वाला नया जलोढक है जो महीन गाद से युक्त हाने के कारण मृदा उर्वरता बढ़ा देता है। बांगर पुराना जलोढक होता है जिसका जमाव बाढ़कृत मैदानों से दूर होता है।
  • खादर और बांगर मृदाओं में कैल्शियमी संग्रंथन अर्थात् कंकड़ पाए जाते हैं। निम्न तथा मध्य गंगा के मैदान और ब्रह्मपुत्र घाटी में ये मृदाएं अधिक दोमटी और मृण्मय हैं। पश्चिमी से पूर्व की ओर इनमें बालू की मात्रा घटती जाती है।
  • जलोढ़ मृदाओं का रंग हल्के धूसर से राख धूसर जैसा होता है। इसका रंग निक्षेपण की गहरार्इ, जलोढ़ के गठन और निर्माण में लगने वाली समयावधि पर निर्भर करता है।
  • जलोढ़ मृदाओं पर गहन कृषि की जाती है।

 

काली मृदाएं

  • काली मृदाएं दक्कन के पठार के अधिकतर भाग पर पार्इ जाती हैं। इसमें महाराष्ट्र के कुछ भाग गुजरात, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भाग शामिल हैं।
  • गोदावरी और कृष्णा नदियों के ऊपरी भागों और दक्कन के पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में गहरी काली मृदा पार्इ जाती है।
  • इन मृदाओं को ‘रेगुर’ तथा ‘कपास वाली काली मिट्टी’ भी कहा जाता है। आमतौर पर काली मृदाएं मृण्मय, गहरी और अपारगम्य होती हैं।
  • ये मृदाएं गीली होने पर फूल जाती हैं और चिपचिपी हो जाती हैं। सूखने पर ये सिकुड़ जाती हैं। इस प्रकार शुष्क ऋतु में इन मृदाओं में चौड़ी दरारें पड़ जाती हैं। इस समय ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इनमें ‘स्वत: जुतार्इ’ हो गर्इ हो।
  • नमी के धीमे अवशोषण और नमी के क्षय की इस विशेषता के कारण काली मृदा में एक लंबी अवधि तक नमी बनी रहती है। इसके कारण फसलों को, विशेष रूप से वर्षाधीन फसलों को शुष्क ऋतु में नमी मिलती रहती है और वे फलती-फूलती रहती हैं।
  • रासायनिक दृष्टि से काली मृदाओं में चूने, लौह मैग्नीशियम तथा एलुमिना के तत्व काफी मात्रा में पाए जाते हैं। इनमें पोटाश की मात्रा भी पार्इ जाती है।
  • लेकिन इनमें फॉस्फोरस, नाइट्रोजन और जैव पदार्थों की कमी होती है। इस मृदा का रंग गाढ़े काले और स्लेटी रंग के बीच की विभिन्न आभाओं का होता है।

 

लाल और पीली मृदाएं

  • लाल मृदा का विकास दक्कन के पठार के पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में कम वर्षा वाले उन क्षेत्रों में हुआ है जहां रवेदार आग्नेय चट्टानें पार्इ जाती हैं।
  • पश्चिमी घाट के गिरिपद क्षेत्र की एक लंबी पट्टी में लाल दोमटी मृदा पार्इ जाती है।
  • पीली और लाल मृदाएं उड़ीसा तथा छत्तीसगढ़ के कुछ भागों और मध्य गंगा के मैदान के दक्षिणी भागों में पार्इ जाती हैं।
  • इस मृदा का लाल रंग रवेदार तथा कायांतरित चट्टानों में लोहे के व्यापक विसरण के कारण होता है जलयोजित होने के कारण यह पीली दिखार्इ पड़ती है।
  • महीन कणों वाली लाल और पीली मृदाएं सामान्यत: उर्वर होती हैं। इसके विपरीत मोटे कणों वाली उच्च भूमियों की मृदाएं अनुर्वर होती हैं। इनमें सामान्यत: नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और ह्यूमस की कमी होती है

 

लैटेराइट मृदाएं

  • लैटेराइट एक लैटिन शब्द ‘लेटर’ से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ र्इट होता है। लैटेराइट मृदाएं उच्च तापमान और भारी वर्षा के क्षेत्रों में विकसित होती हैं। ये मृदाएं उष्ण कटिबंधीय वर्षा के कारण हुए तीव्र निक्षालन का परिणाम हैं।
  • वर्षा के साथ चूना और सिलिका तो निक्षालित हो जाते हैं तथा लोहे के ऑक्साइड और एल्युमिनियम के यौगिक से भरपूर मृदाएं शेष रह जाती हैं।
  • उच्च तापमानों में आसानी से पनपने वाले जीवाणु द्यूमस की मात्रा को तेजी से नष्ट कर देते हैं। इन मृदाओं में जैव पदार्थ, नाइट्रोजन, फॉस्फेट और कैल्सियम की कमी होती है तथा लौह ऑक्साइट और पोटाश की अधिकता होती है परिणामस्वरूप लैटेराइट मृदाएं कृषि के लिए पर्याप्त उपजाऊ नहीं हैं। फसलों के लिए उपजाऊ बनाने के लिए इन मृदाओं में खाद और उर्वरकों की भारी मात्रा डालनी पड़ती है।
  • तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और केरल में काजू जैसे वृक्षों वाली फसलों की खेती के लिए लाल लैटेराइट मृदाएं अधिक उपयुक्त हैं।
  • मकान बनाने के लिए लेटेराइट मृदाओं का प्रयोग र्इंटे बनाने में किया जाता है। इन मृदाओं का विकास मुख्य रूप से प्रायद्वीपीय पठार के ऊंचे क्षेत्रों में हुआ है। लैटेराइट मृदाएं सामान्यत: कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, उड़ीसा और असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पार्इ जाती हैं।

 

शुष्क मृदाएं

  • शुष्क मृदाओं का रंग लाल होता है। ये सामान्यत: संरचना से बलुर्इ और प्रकृति से लवणीय होती हैं।
  • कुछ क्षेत्रों की मृदाओं में नमक की मात्रा इतनी अधिक होती है कि इनके पानी को वाष्पीकृत करके नमक प्राप्त किया जाता है। शुष्क जलवायु, उच्च तापमान और तीव्र गति से वाष्पीकरण के कारण इन मृदाओं में नमी और ह्यूमस कम होते हैं।
  • इनमें नाइट्रोजन अपर्याप्त और फॉस्फेट सामान्य मात्रा में होते हैं। नीचे की ओर चूने की मात्रा के बढ़ते जाने के कारण निचले संस्तरों में कंकड़ों की परतें पार्इ जाती हैं।
  • मृदा के तली संस्तर में कंकड़ों की परत बनने के कारण पानी का रिसाव सीमित हो जाता है इसलिए सिंचार्इ किए जाने पर इन मृदाओं में पौधों की सतत् वृद्धि के लिए नमी सदा उपलब्ध रहती है।
  • ये मृदाएं विशिष्ट शुष्क स्थलाकृति वाले पश्चिमी राजस्थान में अभिलाक्षणिक रूप से विकसित हुर्इ है। ये मृदाएं अनुर्वर हैं क्योंकि इनमें ह्यूमस और जैव पदार्थ कम मात्रा में पाए जाते हैं।

 

लवण मृदाएं

  • ऐसी मृदाओं को ऊसर मृदाएं भी कहते हैं। लवण मृदाओं में सोडियम, पोटैशियम और मैग्नीशियम का अनुपात अधिक होता है अत: ये अनुर्वर होती हैं और इनमें किसी भी प्रकार की वनस्पति नहीं उगती।
  • मुख्य रूप से शुष्क जलवायु और खराब अपवाह के कारण इनमें लवणों की मात्रा बढ़ती जाती है।
  • ये मृदाएं शुष्क और अर्द्ध शुष्क होती हैं तथा इनकी संरचना बलुर्इ से लेकर दोमटी तक होती है। इनमें नाइट्रोजन और चूने की कमी होती है। लवण मृदाओं का अधिकतर प्रसार पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टाओं और पश्चिमी बंगाल के सुंदरवन क्षेत्रों में है।
  • कच्छ के रन में दक्षिण-पश्चिमी मानसून के साथ नमक के कण आते हैं जो एक पपड़ी के रूप में ऊपरी सतह पर जमा हो जाते हैं।
  • डेल्टा प्रदेश में समुद्री जल के भर जाने से लवण मृदाओं के विकास को बढ़ावा मिलता है।
  • अत्यधिक सिंचार्इ वाले गहन कृषि के क्षेत्रों में, विशेष रूप से हरित कांति वाले क्षेत्रों में उपजाऊ जलोढ़ मृदाएं भी लवणीय होती जा रही है।
  • शुष्क जलवायु वाली दशाओं में अत्याधिक सिंचार्इ केशिका क्रिया को बढ़ावा देती है। इसके परिणामस्वरूप नमक ऊपर की ओर बढ़ता है और मृदा की सबसे ऊपर परत में नमक जमा हो जाता है
  • इस प्रकार के क्षेत्रों, विशेष रूप में पंजाब और हरियाणा में मृदा की लवणता की समस्या से निपटने के लिए जिप्सम डालने की सलाह दी जाती है।

 


 

पीटमय मृदाएं

  • ये मृदाएं भारी वर्षा और उच्च आर्दता से युक्त उन क्षेत्रों में पार्इ जाती हैं जहां वनस्पति की वृद्धि अच्छी हो, अत: इन क्षेत्रों में मृत जैव पदार्थ बड़ी मात्रा में इकट्ठे हो जाते हैं जो मृदा को जैव तत्व प्रदान करते हैं।
  • इन मृदाओं में जैव पदाथोर्ं की मात्रा 40% से 50% तक होती है।
  • ये मृदाएं सामान्यत: गाढ़े और काले रंग की होती हैं। अनेक स्थानों पर ये क्षारीय भी हैं।
  • ये मृदाएं अधिकतर बिहार के उत्तरी भाग, उत्तराखण्ड के दक्षिणी भाग, पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों उड़ीसा और तमिलनाडु में पार्इ जाती हैं।

 

वन मृदाएं

  • अपने नाम के अनुरूप ये मृदाएं वर्षा वाले वन क्षेत्रों में ही बनती हैं। इन मृदाओं का निर्माण पर्वतीय पर्यावरण में होता है।
  • इस पर्यावरण में परिवर्तन के अनुसार मृदाओं का गठन और संरचना बदलती रहती है।
  • हिमालय के हिमाच्छादित क्षेत्रों में इन मृदाओं का अनाच्छादन होता रहता है और ये अम्लीय और कम ह्रास वाली होती हैं। निचली घाटियों में पार्इ जाने वाली मृदाएं उर्वर होती हैं।

 

मृदा अवकर्षण

  • मोटे तौर पर मृदा अवकर्षण को मृदा की उर्वरता के ह्रास के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इसमें मृदा का पोषण स्तर गिर जाता है तथा अपरदन और दुरुपयोग के कारण मृदा की गहरार्इ कम हो जाती है।
  • भारत में मृदा संसाधनों के क्षय का मुख्य कारक मृदा अवकर्षण है। मृदा अवकर्षण की दर भू-आकृति, पवनों की गति तथा वर्षा की मात्रा के अनुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भिन्न-भिन्न होती है।

 

मृदा अपरदन

  • मृदा के आवरण का विनाश, मृदा अपरदन कहलाता है। बहते जल और पवनों की अपरदनात्मक प्रक्रियाएं तथा मृदा निर्माण कारी प्रक्रियाएं साथ-साथ घटित हो रही होती हैं।
  • सामान्यत: इन दोनों प्रक्रियाओं में एक संतुलन बना रहता है। धरातल से सूक्ष्म कणों के हटने की दर वही होती है जो मिट्टी की परत में कणों के जुड़ने की होती है।
  • कर्इ बार प्राकृतिक अथवा मानवीय कारकों से यह संतुलन बिगड़ जाता है, जिससे मृदा के अपरदन की दरध्गति बढ़ जाती है।
  • मृदा को हटाने और उसका परिवहन कर सकने के गुणों के कारण पवन ओर जल मृदा अपरदन के दो शक्तिशाली कारक हैं।
  • जल अपरदन अपेक्षाकृत अधिक गंभीर है और यह भारत के विस्तृत क्षेत्रों में हो रहा है। जल अपरदन 2 रूपों में होता है-परत अपरदन और अवनालिका अपरदन। परत अपरदन समतल भूमियों पर मूसलाधार वर्षा के बाद होता है और इसमें मृदा का हटना आसानी से दिखार्इ भी नहीं देता, किंतु यह अधिक हानिकारक है क्योंकि इससे मिट्टी की सूक्ष्म और अधिक उर्वर ऊपरी परत हट जाती है।
  • अवनालिका अपरदन सामान्यत: तीव्र ढालों पर होता है। वर्षा से गहरी हुर्इ अवनालिकाएं कृषि भूमियों को छोटे-छोटे टुकड़ों में खंडित कर देती हैं जिससे वे कृषि के लिए अनुपयुक्त हो जाती हैं।
  • जिस प्रदेश में अवनालिकाएं अथवा बीहड़ अधिक संख्या में होते हैं, उसे उत्खात भूमि स्थलाकृति कहा जाता है
  • चंबल नदी की द्रोणी में बीहड़ बहुत विस्तृत हैं। इसके अतिरिक्त ये तमिलनाडु और पश्चिमी बंगाल में भी पाये जाते हैं।
  • मृदा अपरदन भारतीय कृषि के लिए गंभीर समस्या बन गर्इ है। इसके दुष्परिणाम अन्य क्षेत्रों में भी दिखार्इ पड़ते हैं।
  • नदी की घाटियों में अपरदित पदाथोर्ं के जमा होने से उनकी जल प्रवाह क्षमता घट जाती है। इससे प्राय: बाढ़ आती है तथा कृषि भूमि को क्षति पहुंचती है।
  • वनोन्मूलन मृदा अपरदन के प्रमुख कारणों में से एक है। पौधों की जड़ें मृदा को बांधे रखकर अपरदन को रोकती है। पत्तियां और टहनियां गिराकर वे मृदा में ह्यस की मात्रा में वृद्धि करते हैं। वास्तव में संपूर्ण भारत में वनों का विनाश हुआ है लेकिन मृदा अपरदन पर उनका प्रभाव देश के पहाड़ी भागों में अधिक पड़ा है।
  • भारत के सिंचित क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि का काफी बड़ा भाग अति सिंचार्इ के प्रभाव से लवणीय होता जा रहा है। मृदा के निचले स्तरों में जमा हुआ नमक धरातल के ऊपर आकर उर्वरता को नष्ट कर देता है।
  • रासायनिक उर्वरक भी मृदा के लिए हानिकारक हैं। जब तक मृदा को पर्याप्त ह्रास नहीं मिलता, रसायन इसे कठोर बना देते हैं और दीर्घकाल में इसकी उर्वरता घट जाती है। यह समस्या नदी घाटी परियोजनाओं के उन सभी समादेशी क्षेत्रों (command are) में अधिक है जो हरित क्रांति के आरंभिक लाभकर्ता थे।
  • अनुमानों के अनुसार भारत की कुल भूमि का लगभग आधा भाग किसी न किसी मात्रा में अवकर्षण से प्रभावित है।

 

मृदा संरक्षण

  • मृदा अपरदन मूल रूप से दोषपूर्ण पद्धतियों द्वारा बढ़ता है। किसी भी तर्कसंगत समाधान के अंतर्गत पहला काम ढालों की कृषि योग्य खुली भूमि पर खेती को रोकना है। 15% से 25% ढाल प्रवणता वाली भूमि का उपयोग कृषि के लिए नहीं होना चाहिए।
  • यदि ऐसी भूमि पर खेती करना जरूरी भी हो जाए तो इस पर सावधानी से सीढ़ीदार खेत बना लेने चाहिए।
  • समोच्च रेखा के अनुसार मेढ़बंदी, समोच्च रेखीय सीढ़ीदार खेत बनाना, नियमित वानिकी, नियंत्रित चरार्इ, आवरण फसलें उगाना. मिश्रित खेती तथा शस्यावर्तन आदि उपचार के कुछ ऐसे तरीके हैं जिनका उपयोग मृदा अपरदन को कम करने के लिए प्राय: किया जाता है।
  • अवनालिका अपरदन को रोकने तथा उनके बनने पर नियंत्रण के प्रयत्न किए जाने चाहिए। अंगुल्याकार . अवनालिकाओं को सीढ़ीदार खेत बनाकर समाप्त किया जा सकता है। बड़ी अवनालिकाओं में जल की अपरदनात्मक तीव्रता को कम करने के लिए रोक बांधे की एक श्रृंखला बननी चाहिए। अवनालिकाओं के शीर्ष की ओर फैलाव को नियंत्रित करने पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। यह कार्य अवनालिकाओं को बंद करके, सीढ़ीदार खेत बनाकर आवरण वनस्पति का रोपण करके किया जा सकता है।
  • शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में कषि योग्य भूमि पर बालू के टीलों के प्रसार को वृक्षं की रक्षक मेखला बनाकर तथा वन्य कृषि करके रोकने के प्रयास करने चाहिए।
  • कृषि के लिए अनुपयुक्त भूमि को चारागाहों में बदल देना चाहिए। केन्द्रीय शुष्क भूमि अनुसंधान संस्थान में पश्चिमी राजस्थान में बालू के टीलों को स्थिर करने के प्रयोग किए हैं।

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