स्वाधीनता संग्राम (1928-1935 ई.)
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स्वाधीनता संग्राम (1928-1935 ई.)
विश्लेषणात्मक अवधारणा
स्वराज एक पवित्र शब्द है, जिसका अर्थ है स्वशासन। इसका अर्थ सब प्रकार के संयमों से मुक्ति नहीं है, जैसा प्राय: स्वाधीनता का अर्थ लगाया जाता है। पूर्ण स्वराज यानी अपने सर्वाधिक दीनहीन देशवासियों की स्वतंत्रता। मैं भारत को सभी पराधीनताओं से मुक्त कराने के लिए कटिबद्ध हूं। मुझे एक शासक के स्थान पर दूसरे शासक को लाने की इच्छा नहीं है। स्वराज से तात्पर्य ऐसी भारत सरकार से है, जो देश की वयस्क जनसंख्या के बहुमत की राय से कायम हो। यही स्वराज प्राप्ति का स्वप्न गाधी को लंदन ले जाता है और फ्रेंकमोरेस नामक ब्रिटिश नागरिक ने गांधी जी के बारे में इसी समय कहा, कि अर्ध नंगे फकीर के ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वार्ता हेतु सेण्टपाल पैलेस की सीढ़ियां चढ़ने का –श्य अपने आप में एक अनोखा और दिव्य प्रभाव उत्पन्न कर रहा था। 28 दिसंबर 1931 को गांधी लंदन से खाली हाथ निराश बंबर्इ पहुंचे, स्वदेश पहुंचने पर उन्होंने कहा, कि यह सच है कि मैं खाली हाथ लौटा हूँ, किन्तु मुझे संतोष है कि जो ध्वज मुझे सौंपा गया था, मैंने उसे नीचे नहीं होने दिया और उसके सम्मान के साथ समझौता नहीं किया।
स्थापना
1919 र्इ. के ‘भारत सरकार अधिनियम’ में यह व्यवस्था की गर्इ थी, कि 10 वर्ष के उपरान्त एक ऐसा आयोग नियुक्त किया जायेगा, जो इस अधिनियम से हुर्इ प्रगति की समीक्षा करेगा। अत: ब्रिटिश प्रधानमंत्री (कंजरवेटिव पार्टी) ने समय से 2 वर्ष पूर्व ही सर जॉन साइमन के नेतृत्व में 7 सदस्यों वाले आयोग की स्थापना की, जिसमें सभी सदस्य ब्रिटेन की संसद के सदस्य थे।
विरोध
- ‘साइमन कमीशन’ के सभी सदस्य अंग्रेज होने के कारण कांग्रेसियों ने इसे ‘श्वेत कमीशन’ कहा। 8 नवम्बर 1927 को इस आयोग की स्थापना की घोषणा हुर्इ।
- इस आयोग में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया, जिसके कारण भारत में इस आयोग का तीव्र विरोध हुआ।
कांग्रेस की प्रतिक्रिया
- ‘कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन (दिसम्बर, 1927 ) में एम. ए. अंसारी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने ‘प्रत्येक स्तर एवं प्रत्येक
स्वरूप’ में साइमन कमीशन के बहिष्कार का निर्णय किया। इस बीच नेहरू के प्रयासों से अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित हो गया। किसान-मजदूर पार्टी, लिबरल फेडरेशन, हिन्दू महासभा तथा मुस्लिम लीग ने कांग्रेस के साथ मिलकर कमीशन के बहिष्कार की नीति अपनायी। जबकि पंजाब में संघवादियों तथा दक्षिण भारत में जस्टिस पार्टी ने कमीशन का बहिष्कार न करने का निर्णय किया।
जन प्रतिक्रिया
- 3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन बंबर्इ पहुंचा। इसके
बंबर्इ पहुंचते ही देश के सभी प्रमुख नगरों में हड़तालों एवं जुलूसों का आयोजन किया गया। जहां कहीं भी कमीशन गया, उसका स्वागत काले झंडों तथा ‘साइमन गो बैक’ के नारों से किया गया। इस कमीशन का विरोध करते हुए 17 नवंबर 1928 को लाठीचार्ज के कारण हुए हृदयाघात से मृत्यु हो गर्इ।
कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन
- 1928 र्इ. में कांग्रेस का अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की
अध्यक्षता में कलकत्ता में हुआ।
- इस अधिवेशन में नेहरु रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया लेकिन कांग्रेस के युवा नेतृत्व मुख्यत: जवाहरलाल नेहरु, सुभाष चन्द्र बोस । एवं सत्यमूर्ति ने डोमिनियन स्टेट्स (औपनिवेशिक स्वराज्य) को । कांग्रेस द्वारा अपना मुख्य लक्ष्य घोषित किये जाने पर गहरा असंतोष व्यक्त किया। इसके स्थान पर उन्होंने मांग की कि ‘पूर्ण स्वराज्य’ या ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ को कांग्रेस अपना लक्ष्य घोषित करें।
- इस अवसर पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जैसे- महात्मा गांधी तथा मोतीलाल नेहरू का मत था कि डोमीनियन स्टेट्स की मांग को इतनी जल्दबाजी में अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि बड़ी मुश्किल से इस पर आम सहमति बन सकी है। उन्होंने सुझाव दिया कि डोमिनियन स्टेट्स की मांग को मानने के लिये सरकार को दो वर्ष की मोहलत दी जानी चाहिए। बाद में युवा नेताओं के दबाव के कारण मोहलत की अवधि दो वर्ष से घटाकर एक वर्ष कर दी गयी।
- इस अवसर पर कांग्रेस ने यह प्रतिबद्धता जाहिर की कि डोमिनियन स्टेट्स पर आधारित संविधान को सरकार ने यदि एक वर्ष के अंदर पेश नहीं किया तो कांग्रेस न केवल ‘पूर्ण स्वराज्य’ को अपना लक्ष्य घोषित करेगी बल्कि इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु वह सविनय अवज्ञा आंदोलन भी प्रारंभ करेगी।
नेहरू रिपोर्ट
- 1928 र्इ. में तत्कालीन भारत सचिव लार्ड बर्केनहेड ने भारतीयों को ऐसे संविधान के निर्माण को चुनौती दी जो सभी गुटों एवं दलों को मान्य हो। इस चुनौती को स्वीकार कर फरवरी एवं मर्इ, 1928 में, देश के विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं का एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया। यह सम्मेलन पहले दिल्ली फिर पुणे में आयोजित किया गया। सम्मेलन में भारतीय संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने हेतु मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक 8 सदस्सीय-समिति का गठन किया गया।
- अली इमाम, सुभाष चंद्र बोस, एम. एस. एनी, मंगल सिंह, शोएब कुरैशी, जी. आर्इ. प्रधान तथा तेजबहादुर सप्रू समिति के अन्य सदस्य थे।
- देश के संविधान का प्रारूप तैयार करने की दिशा में भारतीयों का यह पहला बड़ा कदम था।
- अगस्त, 1928 में इस समिति ने अपनी प्रसिद्ध रिपोर्ट पेश की, जिसे नेहरु रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।
- इस रिपोर्ट की सभी संस्तुतियों को एकमत से स्वीकार कर लिया गया। रिपोर्ट में भारत को डोमिनियन स्टेट्स का दर्जा दिये जाने की मांग पर बहुमत था, लेकिन राष्ट्रवादियों के एक वर्ग को इस पर आपत्ति थी।
- वह डोमिनियन स्टेट्स के स्थान पर पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन कर रहा था। लखनऊ में डॉ. अंसारी की अध्यक्षता में पुन: सर्वदलीय सम्मेलन हुआ, जिसमें नेहरू रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया गया।
मुस्लिम एवं हिन्दू साम्प्रदायिक प्रतिक्रिया
- नेहरू रिपोर्ट के रूप में देश के भावी संविधान के रुपरेखा
का निर्माण, राष्ट्रवादी नेताओं की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। यद्यपि प्रारंभिक अवसर पर रिपोर्ट के संबंध में उन्होंने प्रशंसनीय एकता प्रदर्शित की किन्तु सांप्रदायिक निर्वाचन के मुद्दे को लेकर धीरे-धीरे अनेक विवाद उभरने लगे।
- प्रारंभ में दिसम्बर, 1927 में मुस्लिम लीग के दिल्ली अधिवेशन में अनेक प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने भाग लिया तथा एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में सम्मिलित 4 मांगों को उन्होंने संविधान के प्रस्तावित मसौदे में सम्मिलित किए जाने की मांग की। दिसम्बर, 1927 के कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में इन मांगों को स्वीकार कर लिया गया तथा इसे दिल्ली प्रस्ताव की संज्ञा दी गयी।
जिन्ना की चौदह सूत्रीय मांगे
- संविधान का भावी स्वरूप संघीय हो तथा प्रांतों को अवशिष्ट शक्तियां प्रदान की जाये।
- देश के सभी विधानमण्डलों तथा सभी प्रांतों की अन्य निर्वाचित संस्थाओं में अल्पसंख्यकों को पर्याप्त एवं प्रभावी नियंत्रण दिया जाये।
- सभी प्रांतों को समान स्वायत्तता प्रदान की जाये।
4.साम्प्रदायिक समूहों का ‘निर्वाचन, पृथक निर्वाचन पद्धति से किया जाये।
- केंद्रीय विधानमंडल में मुसलमानों के लिये एक-तिहार्इ स्थान आरक्षित किये जाय।
- सभी सम्प्रदायों को धर्म, पूजा, उपासना, विश्वास, प्रचार एवं शिक्षा की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाये।
- भविष्य में किसी प्रदेश के गठन या विभाजन में बंगाल, पंजाब एवं उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत की अक्षुण्णता का पूर्ण ध्यान रखा जाये।
- सिन्ध को बम्बर्इ से पृथक कर नया प्रांत बनाया जाये। 9. किसी निर्वाचित निकाय या विधानमंडल में किसी सम्प्रदाय से संबंधित कोर्इ विधेयक तभी पारित किया जाए, जब उस संप्रदाय के तीन-चौथार्इ सदस्य उसका समर्थन करें।
- सभी सरकारी सेवाओं में योग्यता के आधार पर मुसलमानों को पर्याप्त अवसर दिया जाये।
- अन्य प्रांतों की तरह बलूचिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत में भी सुधार कार्यक्रम प्रारंभ किये जायें।
- सभी प्रांतीय विधानमण्डलों में एक-तिहार्इ स्थान मुसलमानों के लिये आरक्षित किये जायें।
- संविधान में मुस्लिम धर्म, संस्कृति, भाषा, वैयक्तिक विधि तथा मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं के संरक्षण एवं अनुदान के लिए आवश्यक प्रावधान किए जाएं।
- केंद्रीय विधानमण्डल द्वारा भारतीय संघ के सभी राज्यों के सहमति के बिना कोर्इ संवैधानिक संशोधन न किया जाये।
1929 र्इ. का कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन और पूर्ण स्वराज्य की मांग
दिसम्बर, 1929 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ। इस ऐतिहासिक अधिवेशन में कांग्रेस के ‘पूर्ण स्वराज्य’ का घोषणा-पत्र तैयार किया तथा इसे कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य घोषित किया। जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने पूर्ण स्वराज्य के विचार को लोकप्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान दिया था, इस अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। जवाहरलाल नेहरू को अध्यक्ष बनाने में गांधी जी ने निर्णायक भूमिका निभार्इ। यद्यपि अठारह प्रांतीय कांग्रेस समितियों में से सिर्फ तीन का समर्थन ही नेहरू को प्राप्त था किंतु बहिष्कार की लहर में युवाओं के सराहनीय प्रयास को देखते हुये महात्मा गांधी ने इन चुनौतीपूर्ण क्षणों में कांग्रेस का सभापतित्व जवाहरलाल नेहरू को सौंपा।
जवाहरलाल नेहरू के अध्यक्ष चुने जाने के दो महत्वपूर्ण कारण थे
- उनके पूर्ण स्वराज्य के प्रस्ताव को कांग्रेस ने अपना मुख्य लक्ष्य बनाने का निश्चय कर लिया था।
- गांधी जी का उन्हें पूर्ण समर्थन प्राप्त था।
नोट - सर्वप्रथम 1921 र्इ. में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में मौलाना हसरत मोहानी ने प्रस्तावित किया कि स्वराज को सभी प्रकार के विदेशी नियंत्रण से मुक्त सम्पूर्ण स्वतंत्रता या सम्पूर्ण स्वराज के रूप में परिभाषित किया जाए और इसे कांग्रेस का लक्ष्य माना जाए।
गांधी इरविन समझौता
5 मार्च 1931 को महात्मा गांधी और तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन के बीच जो समझौता हुआ उसे गांधी इरविन समझौता कहा जाता है
- समय- 5 मार्च 1931
- स्थान- दिल्ली
- समझौते का नाम- गांधी- इरविन समझौता (दिल्ली-पैक्ट)।
- मध्य संधि- महात्मा गांधी और लार्ड इरविन
- अन्य नाम- गांधी इरविन पैक्ट को दिल्ली पैक्ट के नाम से भी जाना जाता है।
- समझौते के मुख्य बिंदु
- जिन राजनैतिक बंदियों पर हिंसा के आरोप है उन्हें छोड़कर शेष को रिहा कर दिया जाएगा
- हिंसा के आरोप संबंधी मामलों को छोड़कर सभी राजनैतिक मुकदमे वापस ले लिए जाएंगे
- भारतीय समुद्र के किनारे नमक बनाने की इजाजत दी जाएगी
- भारतीय लोग (महिलायें) शराब और विदेशी वस्त्रों की दुकान पर कानून की सीमा के भीतर धरना दे सकते हैं
- सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने वालों को सरकार वापस लेने में उदारता दिखाएगी
- सभी संपत्ति जो सरकार ने अपने कब्जे में ली थी वापस कर दी जाएगी लेकिन जो अचल संपत्ति नीलाम हो गर्इ उसे वापस नहीं किया जाएगा
- संगठनों को गैरकानूनी घोषित करने संबंधी आदेश रद्द कर दिए जाएंगे
- संवैधानिक प्रश्न पर संघ को आधार माना गया और आरक्षण के साथ भारतीय उत्तरदायित्व को स्वीकार किया जाएगा
- कांग्रेस को वार्ता हेतु गोलमेज परिषद में आमंत्रित किया जाएगा
- समझौता और भारतीयों की प्रतिक्रिया - गांधी इरविन समझौते का कांग्रेस नेताओं के बहुमत में स्वागत किया।
- श्री के. एम. मुंशी ने इस समझौते को भारत के संवैधानिक इतिहास में एक युग प्रवर्तक घटना कहा किंतु इस समझौते से कांग्रेस के वामपंथी विशेषकर युवा वर्ग में गंभीर असंतोष था
- पंडित जवाहरलाल नेहरु और सुभाष चंद्र बोस ने यह कह कर इसकी आलोचना की थी कि गांधीजी ने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य को बिना ध्यान में रखे समझौता कर लिया
- युवा कांग्रेसी इस समझौते से इसीलिए असंतुष्ट थे क्योंकि गांधीजी 3 क्रांतिकारियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी के फंदे से नहीं बचा सके 23 मार्च 1931 फांसी पर लटका दिया गया था।
कांग्रेस का विशेष अधिवेशन
- कांग्रेस का विशेष अधिवेशन मार्च, 1931 में सरदार वल्लभ भार्इ पटेल की अध्यक्षता में कराची में हुआ था। इस अधिवेशन में युवाओं ने गांधीजी को काले झंडे दिखाए।
- कराची अधिवेशन में ‘‘पूर्ण स्वराज’’ के साथ गांधी इरविन पैक्ट को स्वीकार कर लिया गया।
- इसी अधिवेशन में मौलिक अधिकार और कर्त्तव्य शीर्षक प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया।
- इस कराची अधिवेशन में गांधी जी ने कहा था कि गांधी मर सकते हैं लेकिन गांधीवाद नहीं।
- कराची अधिवेशन में राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम से संबंधित प्रस्ताव भी स्वीकार कर लिया गया।
- कांग्रेस ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में गांधी जी को कांग्रेस का, प्रतिनिधित्व करने के लिए प्राधिकृत किया।
गोलमेज सम्मेलन
- प्रथम गोलमेज सम्मेलन
- प्रथम गोलमेज सम्मेलन 22 नवंबर 1930-13 जनवरी 1931 तक लंदन में आयोजित किया गया।
- यह ऐसी पहली वार्ता थी, जिसमें ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीयों को बराबर का दर्जा दिया गया।
- प्रथम गोलमेज सम्मेलन जिसमें 89 सदस्यों में 13 ब्रिटिश, शेष 76 भारतीय राजनैतिक दलों से जैसे भारतीय उदारवादी दल, हिन्दू महासभा, दलितवर्ग, व्यापारी वर्ग तथा रजवाड़ों के प्रतिनिधि थे।
- इस सम्मेलन का उद्घाटन ब्रिटेन के सम्राट जार्ज पंचम ने किया तथा अध्यक्षता प्रधानमंत्री रैम्जे मैक्डोनाल्ड ने की। सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले प्रमुख नेता इस प्रकार थेतेजबहादुर सप्रू, श्री निवासशास्त्री, मुहम्मद अली, मुहम्मद शफी, आगा खान, फजलूल हक, मुहम्मद अली जिन्ना, होमी मोदी, एम. आर. जयकर, मुंजे, भीमराव अंबेडकर, सुंदर सिंह मजीठिया आदि।
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- दक्षिणपंथी विंस्टन चर्चिल ने ब्रिटिश सरकार की आलोचना करते हुए कहा कि, वह (सरकार) देशद्रोही फकीर (गांधी जी) को बराबर का दर्जा देकर बात कर रही है।
- द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में मदनमोहन मालवीय एवं एनी बेसेन्ट ने खुद के खर्च पर भाग लिया था।
- फ्रेंकमोरेस नामक ब्रिटिश नागरिक ने गांधी जी के बारे में इसी समय कहा, कि अर्ध नंगे फकीर के ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वार्ता हेतु सेण्टपाल पैलेस की सीढ़ियां चढ़ने का –श्य अपने आप में एक अनोखा और दिव्य प्रभाव उत्पन्न कर रहा था।
- 28 दिसंबर 1931 को गांधी लंदन से खाली हाथ निराश बंबर्इ पहुंचे, स्वदेश पहुंचने पर उन्होंने कहा, कि यह सच है कि मैं खाली हाथ लौटा हूं, किन्तु मुझे संतोष है कि जो ध्वज मुझे सौंपा गया था, मैंने उसे नीचे नहीं होने दिया और उसके सम्मान के साथ समझौता नहीं किया।
- भारत आकर गांधी जी ने वेलिंगटन (वायसराय) से मिलना चाहा। लेकिन वायसराय ने मिलने से मना कर दिया, दूसरी ओर गांधी इरविन समझौते को भी सरकार ने दफन कर दिया था। अंतत: मजबूर होकर गांधी ने द्वितीय सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने की घोषणा की।
तृतीय गोलमेज सम्मेलन
- लंदन में तृतीय गोलमेज सम्मेलन 17 नवंबर 1932-24 दिसंबर 1932 तक चला, कांग्रेस ने सम्मेलन का बहिष्कार किया।
- इस सम्मेलन में कुल 46 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।
- सम्मेलन में भारत सरकार अधिनियम 1935 हेतु ठोस योजना के अंतिम स्वरूप को पेश किया गया।
- सांप्रदायिक अधिनिर्णय और पूना समझौता (1932 र्इ.)
- सांप्रदायिक अधिनिर्णय (16 अगस्त 1932)- 16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने ब्रिटिश भारत में उच्च जातियों, निम्न जातियों, मुस्लिमों, बौद्धों, सिखों, भारतीय र्इसार्इयों, आंग्ल-भारतियों, यूरोपियों, और अछूतों (जिन्हें अब दलितों के रूप में जाना जाता है) के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था प्रदान करने के
लिए इसकी घोषणा की।
पूना समझौता (24 सितम्बर 1932)
यह समझौता बी. आर. अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में हुआ था और सरकार ने इस समझौते को सांप्रदायिक अधिनिर्णय में संशोधन के रूप में अनुमति प्रदान की।