वैदिक काल
Category :
वैदिक काल
सिंधु घाटी सभ्यता के पश्चात् भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे ही आर्य अथवा वैदिक सभ्यता के नाम से जाना जाता है। इस काल की जानकारी हमे मुख्यतः वेदों से प्राप्त होती है, जिसमें ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
वैदिक काल को ऋग्वेदिक या पूर्व वैदिक काल (1500-1000 ई. पू) तथा उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई. पू.) में बांटा गया है।
ऋग्वेदिक काल - 1500-1000 ई. पू. तक आर्यों का मूल स्थान मध्य एशिया में बैक्ट्रिया था। यह मैक्समूलर के द्वारा दिया गया सर्वाधिक मान्य मत है।
बालगंगाधर तिलक के अनुसार आर्य उत्तरी ध्रुव (आर्कटिक प्रदेश) से आये थे।
भौगोलिक विस्तार
§ भारत में आर्य सबसे से पहले सप्तसैंधव क्षेत्र में बसे।
§ सप्तसैंधव का अर्थ है सात नदियों का देश। ये सात नदियां इस प्रकार थी-
· शतुद्री - सतलज
· विपाशा - व्यास
· परुषणी - रावी
· अस्किनी - चिनाब
· वितस्ता - झेलम
· सरस्वती - घग्घर
· दृश्द्वती - घग्घर
ऋग्वेद संहिता
§ ऋग्वेदिक काल की एकमात्र, रचना है। इसमें 10 मंडल तथा
1028 सूक्त है। (मंत्र 10462)
§ इसकी रचना 1500-1000 ई. पू. के मध्य हुई। इसके कुल 10 मंडलों में से दूसरे से सातवें तक के मंडल सबसे प्राचीन माने जाते है, जबकि प्रथम तथा दसवां मंडल परवर्ती काल के माने गए है।
§ ऋग्वेद के दूसरे से सातवें मंडल को गोत्र अथवा वंश मंडल के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इन मंडलों की रचना किसी गोत्र विशेष से संबंधित एक ही ऋषि के परिवार ने की थी।
§ ऋग्वेद की अनेक बातें फारसियों के प्राचीनतम ग्रन्थ अवेस्ता से भी मिलती है।
जेंदअवेस्ता और ऋग्वेद दोनों धर्म में ग्रंथों में बहुत से देवी-देवताओं और सामाजिक वर्गों के नाम भी मिलते-जुलते है।
· इनके अलावा आर्य, गोमल (गोमती), क्रमु (कुर्रम) एवं सुवास्तु (स्वात) नदियों से भी परिचित थे।
· ऋग्वेद में सबसे ज्यादा सिन्धु नदी का उल्लेख हुआ है जबकि सरस्वती सर्वाधिक पवित्र नदी मानी जाती थी। गंगा नदी केवल एक बार 10वें मण्डल तथा यमुना का तीन बार उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है।
· ऋग्वेद के नदी सूत्र में 21 नदियों का उल्लेख है। 4 समुद्रों के बारे में बताया गया है। लेकिन सागर के अर्थ में न होकर जलराशि के अर्थ में समुद्र शब्द का प्रयोग हुआ है।
· इससे स्पष्ट है की आर्य सबसे पहले अफगानिस्तान और पंजाब क्षेत्र में बसे थे।
· आर्य हिमालय के एक चोटी (मुंजवंत) जिसमें सोम नामक पौधा प्राप्त होता था, से भी परिचित थे।
वैदिक एवं उत्तरवैदिक साहित्य: एक दृष्टि में
ऋग्वेदः यह सबसे प्राचीन वेद है। इसमें अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुतियां संग्रहित है।
सामवेदः ऋग्वेदिक श्लोको को गाने के लिए चुनकर धुनों में बांटा गया और इसी पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम सामवेद पड़ा। इसमें दी गई ऋचाएं उपासना एवं धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर स्पष्ट तथा लयबद्ध रूप से गाई जाती थीं।
यजुर्वेदः इसमें ऋचाओं के साथ-साथ गाते समय किये जाने वाले अनुष्ठानों का भी पद्य एवं गद्य दोनों में वर्णन है। यह वेद यज्ञ-संबंधी अनुष्ठानों पर प्रकाश डालता है।
अथर्ववेदः यह वेद जन सामान्य की सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों को जानने के लिए इस काल का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें लोक परंपराओं, धार्मिक विचार, विपत्तियों और व्याधियों के निवारण संबंधी तंत्र-मंत्र संग्रहित है।
वेदत्रयीः ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद
संहिताः चारों वेदों का सम्मिलित रूप उपनिषद: 108 (प्रमाणित 12)
वेदांगः शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, (भाषा विगत), छंद और ज्योतिष
उत्तरवैदिक काल
1000-600 ई. पू. तक के काल को उत्तर वैदिक काल कहा जाता है।
इस काल में तीन वेदों सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के अतिरिक्त ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद और वेदांगों की रचना हुई। ये सभी ग्रन्थ उत्तर वैदिक काल के साहित्यिक स्रोत माने जाते हैं।
· चित्रित धूसर मृद्भाण्ड उत्तर वैदिक काल की विशेषता है।
· लोहे के प्रयोग ने समाजिक-आर्थिक एवं राजनैतिक जीवन में क्रांति पैदा कर दी।
· उत्तर वैदिक काल में आर्यों का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे लोहे के हथियार का उपयोग जान गए थे।
· उत्तर वैदिक काल में आर्यों ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया और गंगा के आगे बढ़ते हुए पूर्वी प्रदेशों में निवास करने लगे।
उत्तरवैदिक साहित्य
सामवेद
· इसे भारतीय संगीत का प्राचीनतम एवं प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। सर्वप्रथम 7 स्वरों की जानकारी इसी ग्रंथ से मिलती है।
· सामवेद में प्रमुख देवता सविता या सूर्य है, इसमें मुख्यतः सूर्य की स्तुति के मंत्र हैं किन्तु इंद्र सोम का भी इसमें पर्याप्त वर्णन है।
· सामवेद का पाठ उद्गात्र या उद्गाता नामक पुरोहित ही करते थे। इसमें मंत्रों की संख्या 1869 है। लेकिन 75 मन्त्र ही मौलिक हैं। शेष मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं।
· आकार की दृष्टि से सामवेद सबसे छोटा है।
यजुर्वेद
· यह कर्मकांड से सम्बंधित है। इसमें अनुष्ठान परक और स्तुति परक दोनों तरह के मन्त्र हैं
· यह गद्य और पद्य दोनों में रचित है
· इसके दो भाग हैं- शुक्ल यजुर्वेद और कृष्ण यजुर्वेद। दक्षिण भारत में कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा प्रचलित है
· यजुर्वेद में राजसूय तथा वाजपेय जैसे दो राजकीय समारोहों का उल्लेख है
अथर्ववेद
§ इसकी रचना सबसे अंत में हुई। अथर्ववेद में मंत्रों की संख्या 6000, 20 अध्याय तथा 731 सूक्त है।
§ अथर्ववेद में ब्रह्मज्ञान, धर्म, समाजनिष्ठा, औषधि प्रयोग, रोग निवारण, मन्त्र, जादू टोना आदि अनेक विषयों का वर्णन है।
§ अथर्ववेद की 2 शाखायें पिरपलाद और शौनक हैं।
§ अथर्ववेद की रचना अथर्वा ऋषि ने की थी।
§ अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहते हैं। आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का भी महत्व है।
§ अथर्ववेद से स्पष्ट है कि कालान्तर में आर्यों में प्रकृति-पूजा की उपेक्षा हो गयी थी और प्रेत-आत्माओं व तन्त्र-मन्त्र में विश्वास किया जाने लगा।
ब्राह्मण ग्रन्थ
§ ब्राह्मण ग्रंथों की रचना वेदों की सरल व्याख्या हेतु की गयी थी। इन्हें वेदों का टीका भी कहा जाता है।
§ इसमें यज्ञों का अनुष्ठानिक महत्व दर्शया गया है।
§ इन ग्रंथों की रचना गद्य में की गई है।
वेदांग
§ वेदांगों की संख्या 6 है- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष एवं छन्द
§ शिक्षा- वैदिक स्वरों के शुद्ध उच्चारण के लिए इनकी रचना हुई। इसे वेद की नासिका कहा गया। इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है
वेद और सम्बंधित ब्राह्यणग्रन्थ |
|
ऋग्वेद |
ऐतरेय और कौषीतकी। |
सामवेद |
पंचविंश, षडविंष, छान्दिग्य। |
शुक्ल यजुर्वेद |
शतपथ। |
कृष्ण यजुर्वेद |
तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ, कपिष्ठल। |
अर्थवेद |
गोपथ। |
राजनैतिक स्थिति
§ ऋग्वेदिक काल की शुरुआत में बड़े-बड़े राजतंत्र नहीं थे, बल्कि कबीलों के द्वारा शासन चलता था।
§ सबसे छोटी प्रशासनिक इकाई कुल थी जिसका मुखिया कुलप होता था। कुल से ऊपर ग्राम, विश और जन होते थे।
§ ग्राम अर्थात गांव का कोई निर्धारित भौगोलिक क्षेत्र नहीं होता था। कई कुल अर्थात परिवार गायों को साथ में लेकर अस्थायी जीवन बिताते हुए घूमते थे। स्थायी क्षेत्र में बसने वाले ग्रामों का उदय ऋग्वेद काल के अंत में हुआ जब पशुपालन की जगह कृषि आर्यों का मुख्य व्यवसाय बना।
§ कई ग्रामों के समूह को विश कहा गया है।
§ अनेक विश मिलकर जन कहलाते थे।
§ एक बड़े प्रशासनिक क्षेत्र के रूप में जनपद का उल्लेख ऋग्वेद में केवल एक बार हुआ है जबकि जन शब्द 275 बार आया है।
§ जनों के प्रधान को राजन या राजा कहा जाता था। उसे जनस्यगोपा या गोपति (गायों का स्वामी) भी कहा जाता था। वह भूपति (क्षेत्र का स्वामी) बाद में ऋग्वेद काल के अंत में या उत्तर वैदिक काल में कहलाया।
§ राजा की सहायता हेतु पुरोहित, सेनानी और ग्राभणी (लड़ाकू दलों का प्रमुख) नामक अधिकारी थे।
§ व्राजपति चरागाहों का अधिकारी होता था।
§ कोई स्थायी सेना नहीं होती थी और बल (वितबम) की पहचान विश से की जाती थी।
§ राजा को किसी प्रकार का नियमित कर नहीं मिलता था। बलि नामक उपहार स्वेच्छा से प्रजा द्वारा दिया जाता था।
राजनैतिक संस्थायें
§ ऋग्वेद काल में राज्य कबीलाई संगठन पर आधारित था और इसका शासन सभा, समिति और विदथ नामक संस्थाओं की सहायता से चलाया जाता था।
§ विदथ सबसे प्राचीन संस्था थी, इसका ऋग्वेद में 122 बार उल्लेख हुआ है जबकि समिति का 9 बार और सभा का 8 बार उल्लेख हुआ है।
§ सभा वृद्ध जनों एवं कुलीन लोगों की संस्थां थी। समिति कबीले की आम सभा होती थी। विदथ के संगठन और कार्यों के बारे में स्पष्ट उल्लेख नहीं है।
§ ऋग्वेद काल के प्रारंभ में राजा समिति द्वारा चुना जाता था। बाद में राजा का पद अनुवांशिक हो गया।
§ आर्यों के भारत आगमन पर उनका दास या दस्यु कहलाने वाले स्थानीय जनों से संघर्ष हुआ। अश्व-चालित रथों के कारण आर्यों को सफलता मिली।
§ पांच प्रमुख कबीले थे जिन्हें पंचजन कहा गया। ये पंचजन थेपुरु, यदु, तुर्वसु, द्रुहु एवम् अनु।
§ ऋग्वेदिक काल में दस राजाओं का युद्ध हुआ जिसे दशराज्ञ युद्ध कहा गया।
§ दशराज्ञ युद्ध परुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ।
§ इस युद्ध में भरतवंश के राजा सुदास ने दस अन्य जनों के राजाओं को हराया। पराजित दस राजाओं में 5 आर्य जनों के तथा 5 अनार्य कबीलों के राजा थे।
§ दशराज्ञ युद्ध में सुदास के मुख्य पुरोहित वशिष्ठ थे जबकि विश्वामित्र ने दस राजाओं के संघ का समर्थन किया था।
दशराज्ञ युद्ध में शामिल पांच आर्य जनध्कबीले - पुरु, यदु, तुर्वसु, द्रुहु एवं अनु थे जबकि अकिन्न, पक्थ, भलानाश, विषाणी और शिवि अनार्य कबीले थे।
हमारे देश का नाम भारतवर्ष आर्यों के भरतवंशी राजा भरत के द्य नाम पर पड़ा।
सामाजिक स्थिति
§ ऋग्वेद कालीन सामाजिक संरचना अपेक्षाकृत सरल थी।
§ सामाजिक संगठन गोत्र प्रणाली पर आधारित था।
§ समाज पितृसत्तात्मक था। परिवार संयुक्त रहता था।
§ परिवार तथा समाज में महिलाओं की सम्मानजनक स्थिति थी।
§ कन्याओं का उपनयन संस्कार भी होता था। इसका अर्थ है कि - उन्हें विधिवत शिक्षा प्रदान की जाती थी।
ऋग्वेद में बहुत सी विदुषी महिलाओं का उल्लेख है। विश्ववारा, अपाला, घोषा एवं लोपामुद्रा आदि स्त्रियां वैदिक मंत्रों की रचना करने के लिए जानी जाती हैं। पर्दा प्रथा और बाल विवाह नहीं होते थे।
§ विधवाओं का पुनर्विवाह होता था, इसलिए सती प्रथा का प्रश्न ही नहीं उठता। धार्मिक और सामाजिक कार्यों में पत्नी की पति के साथ बराबर की सहभागिता होती थी।
§ निःसंतान महिलाओं को नियोग की अनुमति थी। नियोग वह प्रथा थी जिसमें निःसंतान महिलाओं को विशेष परिस्थतियों में देवर आदि नजदीकी रिश्तेदार या विद्वान् व्यक्ति से संतान प्राप्ति का अवसर दिया जाता था।
§ कुल मिलकर ऋग्वेदिक काल में स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी थी।
§ चैथा वर्ग शूद्र ऋग्वेद काल के अंत में दिखलाई पड़ता है।
§ वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति हो चुकी थी। यह विभाजन ऋग्वेदिक काल के अंतिम समय में हुआ। इसके अनुसार समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्षों में बांटा गया।
ऋग्वेद का प्रसिद्ध पुरुष सूक्त वर्ण व्यवस्था के दैवीय उत्पत्ति को बताता है। दशम मंडल का 90वां सूक्त पुरुष सूक्त है, जिसके अनुसार ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य तथा चरण से शूद्र वर्ण की उत्पत्ति हुई।
§ प्रारंभ में वर्ण-व्यवस्था गुण और कर्म (व्यवसाय) पर आधारित था। व्यक्ति अपना व्यवसाय बदल कर वर्ण बदल सकता था।
आर्थिक स्थिति
§ प्रारंभिक आर्य स्थायी जीवन नहीं जीते थे तथा घूमते रहते थे। इसलिए पशुपालन मुख्य व्यवसाय था। ऋग्वेद में खेती का उल्लेख बाद में जोड़े गए हिस्सों में मिलता है। इस प्रकार खेती कम महत्व का कार्य था।
§ ऋग्वेदिक आर्य यव (जौ) की खेती करते थे। चावल के जो साक्ष्य मिले हैं वे सब उत्तर वैदिक काल के हैं।
§ गाय ही महत्वपूर्ण संपत्ति होती थी। गौ दान का उल्लेख कई बार मिलता है लेकिन भू-दान का नहीं। ऋग्वेद में गाय के पर्यायवाची शब्दों का 176 बार उल्लेख हुआ है।
§ गायों को लेकर ही ग्राम आपस में टकरा जाते थे। गविष्टि अर्थात गायों की खोज का अर्थ ही युद्ध हो गया था।
§ गवेषण, गोषु, गव्य आदि शब्द युद्ध के पर्यायवाची हैं।
§ राजा को गोपति कहते थे तथा धनी व्यक्ति गोमथ कहलाता था। पणि लोग अनार्य व्यापारी समूह से होते थे।
§ बढ़ई, रथकार, चर्मकार, कुम्भकार, बुनकर आदि भी होते थे।
धार्मिक स्थिति
§ ऋग्वेदिक आर्यों में प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण करके उन्हें देवताओं का रूप दिया।
§ स्तुति करना और यज्ञ में बलि या चढ़ावा देना देवताओं की उपासना की प्रमुख पद्धति थी।
§ ऋग्वेदिक देवताओं में पहला स्थान इंद्र का है जो युद्ध में आर्यों का नेतृत्व करने वाला और किलों को तोड़ने वाला (पुरन्दर) था। इंद्र को वर्षा का भी देवता माना गया है।
ऋग्वेद में इंद्र के लिए 250 सूक्त और अग्नि के लिए 200 सूक्त हैं।
§ सविता या सवृत्रि सूर्य का देवता था। ऋग्वेद का गायत्री मन्त्र जो तीसरे मंडल में है इसी को समर्पित है।
§ वरुण जल का देवता था। इसे ऋतस्य गोपा कहा गया है जो विश्व में व्यवस्था (ऋत) कायम रखता है। वरुण के कुपित होने से जलोदर रोग (ड्राप्सी) होना माना जाता था।
§ असतो मा सद्गयम वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।
§ सोम वनस्पति और मादक रस का देवता था। ऋग्वेद का 9वां मंडल सोम की स्तुति में है।
§ मरुत आंधी का देवता होता था। पर्जन्य बादलों का देवता था।
§ अदिति और उषा प्रातः काल की देवियां थीं। अरण्यानी जंगल की देवी थी। पूषन पशुओं का देवता था।
उत्तरवैदिक राजनैतिक व्यवस्था
§ शतपथ ब्राह्मण ने पांजालों को वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा।
§ राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है। उत्तर वैदिक काल में राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था और सशक्त हुई। इस काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया था।
§ इस काल में राज्य का आकार बढ़ने से राजा का महत्व बढ़ा और उसके अधिकारों का विस्तार हुआ। अब राजा को सम्राट, एकराट और अधिराज आदि नामों से जाना जाने लगा।
§ राष्ट्र शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल में ही किया गया।
§ पुनर्जन्म के सिद्धांत का सर्वप्रथम वर्णन शतपथ ब्राह्मण में किया गया।
§ उत्तर वैदिक में संस्थाओं, सभा और समिति का अस्तित्व कायम रहा किन्तु विदथ का उल्लेख नहीं मिलता है।
§ उत्तर वैदिक काल में सभा में महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध हो गया।
§ वैदिक कालीन शासन की सबसे बड़ी इकाई जन का स्थान जनपद ने ले लिया।
§ इस काल में राजा के प्रभाव में वृद्धि के साथ ही सभा और समिति का महत्व घट गया।
§ ऋग्वेदिक काल में बलि एक स्वेच्छाकारी कर था, जो की उत्तर वैदिक काल में नियमित कर बन गया।
§ अथर्ववेद के अनुसार राजा को आय का 16वां भाग, मिलता था।
§ उत्तर वैदिक कालीन यज्ञों-राजसूय, अश्वमेघ का राजनैतिक महत्व था। ये यज्ञ राजा के द्वारा संपन्न कराये जाते थे।
सामाजिक व्यवस्था
§ उत्तर वैदिक काल में समाज स्पष्ट रूप से चार वर्गों में विभक्त था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
§ इस काल में ब्राह्मणों ने समाज में अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर ली थी।
§ क्षत्रियों ने योद्धा वर्ग का प्रतिनिधित्व किया। इन्हें जनता का रक्षक माना गया। राजा का चुनाव इसी वर्ग से किया जाता था।
§ वैश्यों ने व्यापार, कृषि और विभिन्न दस्तकारी के धंधे ऋग्वेदिक काल से ही अपना लिए थे और उत्तर वैदिक काल में एक प्रमुख करदाता बन गए थे।
§ शूद्रों का काम तीनों उच्च वर्ग की सेवा करना था। इस वर्ग के सभी लोग श्रमिक थे।
§ उत्तर वैदिक काल में तीन उच्च वर्गों और शूद्रों के मध्य स्पष्ट विभाजन रेखा उपनयन संस्कार के रूप में देखने को मिलती है।
§ स्त्रियों को सामान्यतः निम्न दर्जा दिया जाने लगा। समाज में स्त्रियों को सम्मान प्राप्त था, परन्तु ऋग्वेदिक काल की अपेक्षा इसमें कुछ गिरावट आ गयी थी।
§ पारिवारिक जीवन ऋग्वेद के समान था। समाज पितृसत्तात्मक था, जिसका स्वामी पिता होता था। इस काल में स्त्रियों को पैतृक सम्बन्धी कुछ अधिकार भी प्राप्त थे।
§ उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई। गोत्र शब्द का अर्थ है- वह स्थान जहां समूचे कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था। परन्तु बाद में इस शब्द का अर्थ एक मूल पुरुष का वंशज हो गया।
§ उत्तर वैदिक काल में केवल तीन आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ की जानकारी मिलती है, चैथे आश्रम सन्यास की अभी स्पष्ट स्थापना नहीं हुई थी।
सर्वप्रथम चारों आश्रमों का उल्लेख जाबाली उपनिषद में मिलता है।
धार्मिक व्यवस्था
§ उत्तर वैदिक काल में धर्म का प्रमुख आधार यज्ञ बन गया, जबकि इसके पूर्वज ऋग्वेदिक काल में स्तुति और आराधना को महत्व दिया जाता था।
§ पुर्नजन्म के सिद्धांत का सर्वप्रथम वर्णन शतपथ ब्राह्मण में किया गया।
§ यज्ञ आदि कर्मकांडो का महत्व इस युग में बढ़ गया था। इसके साथ ही अनेकानेक मन्त्र विधियां एवं अनुष्ठान प्रचलित हुए।
§ इस काल में ऋग्वेदिक देवता इंद्र, अग्नि और वायु रूप महत्वहीन हो गए। इनका स्थान प्रजापति, विष्णु और रूद्र ने ले लिया।
§ प्रजापति को सर्वोच्च देवता कहा गया, जबकि परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया।
§ उत्तर वैदिक काल में ही वासुदेव साम्प्रदाय एवं 6 दर्शनों - सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा व उत्तर मीमांसा का अविर्भाव हुआ।
उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था
§ उत्तर वैदिक ग्रन्थों में लोहे के लिए लौह अयस एवं कृष्ण अयस शब्द का प्रयोग हुआ है।
§ अतरंजीखेड़ा एटा (उ.प्र.) में पहली बार कृषि से सम्बन्धित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
§ उत्तर वैदिक काल में आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि बन गया।
§ शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं-जुताई, बुनाई, कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख मिलता है।
अथर्ववेद में पृथुवैन्य को हल एवं कृषि का अविष्कारक कहा गया है।
§ यव (गौ), व्रीहि (धान), माड़ (उड़द), गुदग (मूंग), गोधूम (गेंहू), मसूर आदि खाद्यान्नों का वर्णन यजुर्वेद में मिलता है।
§ उत्तर वैदिक काल में जीवन में स्थिरता आ जाने के बाद वाणिज्य एवं व्यापार का तीव्र गति से विकास हुआ।
§ इस काल के आर्य सामुद्रिक व्यापार से परिचित हो चुके थे।
§ शतपथ ब्राह्मण में वाणिज्य व्यापार और सूद पर रुपये देने वालों का उल्लेख मिलता है।
§ उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो चुका था। परन्तु सामान्य लेन-देन में या व्यापार में वस्तु विनिमय का प्रयोग किया जाता था।
धार्मिक व्यवस्था
§ उत्तर वैदिक काल में धर्म का प्रमुख आधार यज्ञ बन गया, जबकि इसके पूर्वज ऋग्वेदिक काल में स्तुति और आराधना को महत्व दिया जाता था।
§ पुर्नजन्म के सिद्धांत का सर्वप्रथम वर्णन शतपथ ब्राह्मण में किया गया।
§ यज्ञ आदि कर्मकांडो का महत्व इस युग में बढ़ गया था। इसके साथ ही अनेकानेक मन्त्र विधियां एवं अनुष्ठान प्रचलित हुए।
§ इस काल में ऋग्वेदिक देवता इंद्र, अग्नि और वायु रूप महत्वहीन हो गए। इनका स्थान प्रजापति, विष्णु और रूद्र ने ले लिया।
§ प्रजापति को सर्वोच्च देवता कहा गया, जबकि परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया।
§ उत्तर वैदिक काल में ही वासुदेव साम्प्रदाय एवं 6 दर्शनों - सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा व उत्तर मीमांसा का अविर्भाव हुआ।
उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था
§ उत्तर वैदिक ग्रन्थों में लोहे के लिए लौह अयस एवं कृष्ण अयस शब्द का प्रयोग हुआ है।
§ अतरंजीखेड़ा एटा (उ.प्र.) में पहली बार कृषि से सम्बन्धित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
§ उत्तर वैदिक काल में आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि बन गया।
§ शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं-जुताई, बुनाई, कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख मिलता है।
अथर्ववेद में पृथुवैन्य को हल एवं कृषि का अविष्कारक कहा गया है।
§ यव (गौ), व्रीहि (धान), माड़ (उड़द), गुदग (मूंग), गोधूम (गेंहू), मसूर आदि खाद्यान्नों का वर्णन यजुर्वेद में मिलता है।
§ उत्तर वैदिक काल में जीवन में स्थिरता आ जाने के बाद वाणिज्य एवं व्यापार का तीव्र गति से विकास हुआ।
§ इस काल के आर्य सामुद्रिक व्यापार से परिचित हो चुके थे।
§ शतपथ ब्राह्मण में वाणिज्य व्यापार और सूद पर रुपये देने वालों का उल्लेख मिलता है।
§ उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो चुका था। परन्तु सामान्य लेन-देन में या व्यापार में वस्तु विनिमय का प्रयोग किया जाता था।
§ निष्क, शतमान, कृष्णल और पाद मुद्रा के प्रकार थे।
§ ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लिखित श्रेष्ठी तथा वाजसनेयी संहिता में उल्लिखित गण या गणपति शब्द का प्रयोग संभवतः व्यापारिक संगठन के लिए किया गया है।
§ स्वर्ण तथा लोहे के अतिरिक्त इस युग के आर्य टिन, तांबा, चांदी और सीसा से भी परिचित हो चुके थे।
§ उद्योग और विभिन्न प्रकार के शिल्पों का उदय उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था की अन्य विशेषता थी।
§ उत्तर वैदिक काल में अनेक व्यवसायों के विवरण मिलते हैं, जिनमें धातु शोधक, रथकार, बढ़ई, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्हार आदि का उल्लेख मिलता है।
§ इस काल में वस्त्र निर्माण उद्योग एक प्रमुख उद्योग था। कपास का उल्लेख नहीं मिलता। उर्ण (ऊन), शज (सन) का उल्लेख उत्तर वैदिक काल में मिलता है।
§ बुनाई का काम बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः यह काम स्त्रियां करती थीं।
§ उत्तर वैदिक काल में मृदभांड निर्माण कार्य भी व्यवसाय का रूप ले चुका था। इस काल के लोगों में लाल मृदभांड अधिक प्रचलित था।
§ धातु शिल्प उद्योग बन चुका था। इस युग में धातु गलने का उद्योग बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः तांबे को गलाकर विभिन्न प्रकार के उपकरण व वस्तुएं बनायी जाती थीं।
You need to login to perform this action.
You will be redirected in
3 sec