न्याय दर्शन के संदर्भ में निम्न कथनों पर विचार करें - |
1. इसे तर्कशास्त्र भी कहते हैं। |
2. न्याय दर्शन का दूसरा नाम अनविक्षिकी है। |
3. न्याय आत्मा को स्वरुपत: अचेतन मानता है। |
उपरोक्त में से सत्य कथनों का चुनाव करें |
A) 1 और 2
B) 2 और 3
C) 1 और 3
D) 1, 2 और 3
Correct Answer: D
Solution :
उत्तर - 1, 2 और 3 |
व्याख्या - न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम माने जाते हैं। 11वीं -12वीं शताब्दी में न्याय दर्शन को नवीन रूप प्रसिद्ध ग्रन्थ तत्व चिंतामणि में गंगेश उपाध्याय ने दिया। इस दर्शन के अनुसार यह एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मस्तिष्क एक निष्कर्ष तक पहुंचे और उचित निष्कर्ष तक पहुंचने के बाद तर्क करना है। वस्तुत: न्याय दर्शन मुख्यत: तर्क विद्या का प्रतिपादन करने वाला ही दर्शन है। इसलिए इसे तर्कशास्त्र भी कहते हैं। न्याय दर्शन का दूसरा नाम अनविक्षिकी है। अर्थात अन्वीक्षा के द्वारा प्रवर्तित होने वाले विद्या। अन्वीक्षा का अर्थ है प्रत्यक्ष पर आश्रित अनुमान अथवा प्रत्यक्ष तथा शब्दप्रमाण की सहायता से अवगत विषय की अनुभिति अर्थात ज्ञान। न्याय आत्मा को स्वरुपत: जड़ अर्थात अचेतन मानता है। आत्मा में ज्ञान या बुद्धि का संचार एक विशेष परिस्थिति में होता है। ज्ञान का उदय आत्मा में तभी होता है जब आत्मा का संपर्क मन के साथ, मन का इंद्रियों के साथ, तथा इंद्रियों का बाह्य जगत के साथ संपर्क होता है। यदि आत्मा का ऐसा संपर्क नहीं होता तो आत्मा में ज्ञान या बुद्धि का आविर्भाव नहीं हो सकता है। |
विशेष - न्याय दर्शन में बुद्धि शब्द का प्रयोग ज्ञान के रूप में हुआ है। न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञान का आश्रय द्रव्य है और ज्ञान आत्मा का विशेष गुण है। ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध है। जो ज्ञान प्राप्त करता है वह ज्ञाता है और जो ज्ञान का विषय है वह ज्ञेय हैं। आत्मा ही ज्ञाता है और जब ज्ञाता ज्ञेय के संपर्क में आता है, तो उसमें ज्ञान (बुद्धि) नामक गण उत्पन्न होता है। |
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