गुप्तोत्तर काल

गुप्तोत्तर काल

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विश्लेषणात्मक अवधारणा

                गुप्तों के अवसान के बाद भारतीय राजनीति में विकेंद्रीकरण और क्षेत्रीयता की भावना का विकास तेजी से होने लगा था। गुप्तों के सामंत अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते जा रहे थे, केंद्रीय सत्ता लगातार कमजोर होती जा रही थी। क्षेत्रीय शक्तियां अपने आप को मजबूत करते जा रहे थी। दिल्ली सल्तनत में जब तक स्थाई और मजबूत सरकार का गठन नहीं हो गया था तब तक भारतीय राजनीति ढुलमुल तरीके से संचालित होती रही। जिस प्रकार हम लोग पहले देख चुके हैं. मौर्यों के बाद गुप्तों ने भारत को एक सूत्र में बांधा था और उसके बीच के काल में राजनीति खालीपन का या कहें तो क्षेत्रीयता और विकेंद्रीकरण का बोलबाला था वैसा ही बोलबाला गुप्तों के बाद शुरू हो गया था भारतीय राजनीति में इसे एक संक्रमण काल के रूप में देखना चाहिए तथा हमारा अध्ययन की विषय वस्तु क्षेत्रीय राज्यों का रूप में उनके क्रियाकलापों राजनैतिक प्रक्रिया तथा देश की संस्कृति और सभ्यता के विकास में उनके योगदान को रेखांकित करने की जरूरत है।

 

       

भारत पर हूण आक्रमण

                हूण मध्य एशिया की एक खानाबदोश एवं बर्बर जाती थी। हूणों ने 455 ई. में भारत पर पहला आक्रमण किया जिन्हें तत्कालीन गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त ने भारत से बाहर खदेड़ दिया। स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख में बताया गया है कि उसने मलेच्छों (हूणों) पर सफलता प्राप्त की थी। हूणों पर इसी विजय के उपलक्ष्य में स्कन्दगुप्त ने ‘विष्णु स्तम्भ’ बनवाया था।

 

                हूण कौन थे?

                हूण उत्तरी चीन स्थित मंगोल के निवासी थे। यह एक खानाबदोश जाति थी जो संसाधनों की खोज में वहां से निकलकर दो कबीलों में बंट गई। चैथी सदी के अंत में इनका एक कबीला वोल्गा नदी की तरफ चला गया तथा दूसरा कबीला ऑक्सस नदी घाटी. (आमू दरिया, वक्षु नदी) में जाकर बस गया।

 

                तोरमाण (500 ई.-572 ई.)

  • 500 ई. के बाद तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने भारत पर कई बार आक्रमण किये, जिसके फलस्वरूप पंजाब में उन्हें सफलता मिली।
  • 510 ई. में वह मालवा की तरफ बढ़ा तथा उसने मालवा के कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
  • उस समय तक गुप्त साम्राज्य तीन शाखाओं में बंट चुका था। मालवा शाखा का तत्कालीन गुप्त शासक भानुगुप्त था जो तोरमाण को रोकने में असफल रहा।
  • 512 ई. में अपनी मृत्यु तक तोरमाण ने सम्पूर्ण गंगा घाटी पर अधिकार कर लिया था।

       

मिहिरकुल (512-530 ई.)

  • तोरमाण की मृत्यु के पश्चात् मिहिरकुल 512 ई. में हूणों का शासक बना। वह एक क्रूर शासक था। उसकी क्रूरता के कारण ही उसे भारत का अत्तिला कहा जाता है। उसने पंजाब स्थित साकल (सियालकोट) को अपनी राजधानी बनाया।
  • मिहिरकुल ने अपने शासनकाल में मारवाड़ (पश्चिमी राजस्थान), उत्तर-पश्चिम में गांधार, सिन्धु घाटी के क्षेत्र, ग्वालियर, मालवा, कश्मीर, पंजाब तथा उत्तर भारत के कई छोटे-छोटे राज्यों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। उसने मगध के गुप्त साम्राज्य पर कई बार आक्रमण किया तथा उनके कुछ क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया। उस समय मगध का गुप्त शासक बालादित्य (नरसिंहगुप्त) था।

 

मौरवरि राजवंश (कन्नौज)

  • हरिवर्मा - कन्नौज के मौखरियों का इतिहास महाराज हरिवर्मा के समय से प्रारंभ होता है। उसने 510 ई. से अपना शासन प्रारंभ किया था। महाराज की उपाधि से यह पता चलता है, कि हरिवर्मा गुप्त वंश की अधीनता स्वीकार करता था।

 

  • आदित्यवर्मा - आदित्यवर्मा हरिवर्मा का पुत्र और उत्तराधिकारी था। असीरगढ़ के लेख में उसकी माता का नाम भट्टारिकादेवी जयस्वामिनी मिलता है। उसका विवाह उत्तरगुप्तवंशी राजकुमारी हर्षगुप्ता के साथ हुआ।
  • ईश्वरवर्मा- आदित्यवर्मा का पुत्र ईश्वरवर्मा शासक हुआ। जौनपुर लेख में उसकी शक्ति की प्रशंसा करते हुए उसे राजाओं में सिंह के समान (क्षितिभुजां सिंह) कहा गया है, जिसने धारा (मालवा), आंध्र एवं रैवतक के शासकों को पराजित किया था।
  • ग्रहवर्मा के मृत्यु के समय मौखरि राज्य पश्चिम में थानेश्वर से पूर्व मगध तक तथा उत्तर में हिमालय से दक्षिण में प्रयाग की सीमा तक विस्तृत था।
  • ग्रहवर्मा के बाद का मौखरि इतिहास थानेश्वर के वर्द्धन इतिहास से जुड़ा हुआ था।

 

पुष्यभूति वंश

  • संभवतः छठी सदी के प्रारम्भ में थानेश्वर में इस वंश की स्थापना हुई। इस वंश के प्रथम महत्वपूर्ण शासक प्रभाकरवर्धन थे।
  • प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन उत्तराधिकारी बने।
  • 606 ई. में मालवा के शासक देवगुप्त और बंगाल के शासक शशांक ने मिलकर कन्नौज के मौखरि शासक गृहवर्मन, जो राज्यवर्धन की बहन राज्यश्री के पति थे, की हत्या कर दी और राज्यश्री को बंदी बना लिया।
  • देवगुप्त को पराजित करने में तो उन्हें सफलता मिली, लेकिन शशांक ने गुप्तं रूप से उनकी हत्या कर दी।

 

हर्षवर्धन

  • अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद हर्षवर्धन थानेश्वर का शासक बना। अपने शासक बनने के उपलक्ष्य में उसने हर्ष संवत् की शुरुआत की।
  • हर्षवर्धन ने अपनी बहन राज्यश्री को कन्नौज की सत्ता वापस दिलाई यद्यपि कन्नौज की भी वास्तविक सत्ता हर्षवर्धन के हाथ में ही रही।
  • वह अपनी राजधानी भी थानेश्वर से कन्नौज ले आया।
  • ह्नेनसांग के अनुसार उसने उत्तरी भारत के प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया। ये प्रदेश संभवतः पंजाब, कन्नौज, गौड़ या बंगाल, मिथिला और उड़ीसा के राज्य थे। परंतु जब उसने दक्कन के राज्यों पर चढ़ाई करनी चाही तो उसे पुलकेशिन द्वितीय के सम्मुख सफलता नहीं मिली।
  • पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का राजा था और उसकी राजधानी उत्तरी कर्नाटक में वातापी या बादामी में थी।

               

  • हर्ष का राज्य भी लगभग गुप्तों की तरह था। उसने भी जिन राजाओं पर विजय प्राप्त की थी, वे उसे राज-कर देते थे और जब वह युद्ध करता तो उसकी मदद के लिए सैनिक भेजते थे।
  • उन्होंने हर्ष का आधिपत्य तो स्वीकार कर लिया था, परंतु वे अपने-अपने राज्य के शासक बने रहे और स्थानीय मामलों में स्वयं ही निर्णय लेते थे।
  • 641 ई. उसने चीन के राजा ताईत्सुंग के पास राजदूत भेजा। तदन्दर तीन चीनी मिशन उसके दरबार में आए।

 

  • प्रसिद्ध चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने हर्षवर्धन के शासक काल में भारत की यात्रा की।
  • ह्नेनसांग ने लिखा है कि हर्ष महायान बौद्ध धर्म का अनुयायी था और अन्य धर्मों का आदर नहीं करता था। परंतु अन्य स्रोतों से पता चलता है कि हर्ष ने बुद्ध की प्रतिमा के साथ-साथ सूर्य और शिव की प्रतिमा का भी पूजन किया था। प्रारम्भ में तो वह शैव धर्म का उपासक था और उसके पूर्वज सूर्य की पूजा करते थे। अपने जीवन के अंतिम सालों में वह बौद्ध धर्म की ओर झुक गया।
  • साहित्य और अध्ययन में हर्ष की काफी रुचि थी। बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केन्द्र नालन्दा को उसने भरपूर दान दिया। उसने विद्वानों को संरक्षण दिया तथा खुद भी महान कवि था।
  • हर्षचरित और कादम्बरी के प्रख्यात लेखक बाणभट्ट हर्ष के दरबारी कवि थे।
  • हर्षवर्धन ने तीन पुस्तकें लिखीं प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानंद।
  • 647 ई. में हर्ष की मृत्यु के बाद कुछ समय तक उत्तर भारत में अस्थिरता बनी रही।


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